डॉ. शैलेष उपाध्याय का व्यंग्य-
वाह, क्या सुहाना मौसम है आज... २२ जनवरी की कोमल सुबह, सुबह की पुर्वाई और गुलाबी ठंड... छुटपुट सफेद बादलों की 'बाटिक प्रिन्ट' वाला गहरा, नीला और ताज़ा आसमान... अपने साप्ताहिक सफ़ेद कूर्ता पायजामा वाली पोशाक, सेन्डल और चौपाल वाला प्लास्टिक फ़ोल्डर लिए और मन ही मन आज के कार्यक्रम के रोमांच की कल्पना करते घर से बाहर निकला। कहीं निकट में फूल पौधों के अभाव से, गाड़ी के विंडशिल्ड पर ही ओस की बिन्दुओं की क्षणिक मुस्कान की मन ही मन प्रशंसा की और दूसरे ही क्षण, गाड़ी में घूसते ही, बूलडोज़र से वाइपरों द्वारा नज़र के रास्तों से उन मासुमों का अतिक्रमण हटाय...मानो जैसे एक क्षण के दिलेर कुदरत प्रेमी ने...दुसरे ही पल वास्तववादी और कुशल वाहन चालक की भूमिका ग्रहण कर ली हो। खैर ये कोई नई बात नहीं है तो ऐसे सुबह, सुबह का आनन्द लेने अकेले बाहर निकलना भी शादी के करीब ३० साल बाद, कोई नई बात नहीं है और ना ही शुक्रवार की सुबह घर गृहस्थी से हंगामी सन्यास ले के चौपाल के बहाने और पत्नी के शब्दों में कहो तो नौटंकी करने निकल पड़ना भी कोई नई घटना नहीं है।
आज की घटनाओं का नयापन मुख्यतः दो चीजों पर अवलंबित था, पहला तो दुनियाभर में आज तक की सबसे ऊँची विक्रमी इमारत का, बुर्ज खलिफ़ा का। यहाँ दुबई में बन कर तैयार होना और उसका अभी-अभी अनावरण होना और दूसरा, पिछले सप्ताह चौपाल में अली भाई और पूर्णिमा जी का यह सुझाव कि एक-आध चौपाल दुबई में भी होना चाहिए ताकि दुबई के नाट्यप्रेमिओं को भी इसमें शामिल होने का मौका और सहुलियत मिले। इन दोनों मुद्दों को जोड़कर आयोजक प्रकाश भाई ने एक बड़े ही दिलचस्प कार्यक्रम का आयोजन कर डाला। आज शुक्रवार २२ जनवरी की चौपाल उन्होंने बुर्ज खलिफ़ा के सबसे ऊपरी स्तर पर- जिसे औबज़र्वेशन डेक भी कहते हैं, वहाँ आयोजित किया। मानना पड़ेगा साहब, ये तो प्रकाश जी जैसे किसी लगलगाव वाले और गहरी जान पहचान वाले घुसाउ व्यक्ति का ही काम है, वरना उस जगह, इस प्रकार का आयोजन और वह भी शुक्रवार की सुबह असंभव ही है। जबकि मौजूदा दौर में, पैसे देने के बावजूद भी लम्बी वेटिंग लिस्ट होती है वहाँ ऊपर सिर्फ़ देखने जाने के लिए।
हम तो भैया बहुत ही खुश थे, इस मौसम में बिना मेहनत के आम खाने के जो मिलने वाले थे। शिष्टाचार के नाते हमने पत्नी से आग्रह किया कि वो भी साथ चले पर चूँकि उन्हें नोटंकिस ही मूलभूत एलर्जी है, बुर्ज खलिफ़ा भी आकर्षित नहीं कर पाया उन्हें। खैर ''बन्दर, क्या जाने अदरख का स्वाद?'' अब पता नहीं कि सचमुच ही मौसम हसीन था, या आज के अद्भूत, और एक ऊँचे विक्रमी और दर्शनीय जगह होने वाले चौपाल की अपेक्षा की वजह से ऐसा प्रतीत होता था, आज सारी ही सृष्टि कुछ ज्यादा ही रंगीन, खुबसुरत और निकट्तम लग रही थी। बटन दबाते ही लिफ्ट भी हाज़िर, एक ही चाभी में आज तो गाड़ी भी चल पड़ी। हरदम कमजोर लगने वाला कार फ्रेशनर आज तो बड़ा ही सुगंधित और मोहक मालूम हुआ। रास्तों पे चलते काले-गोरे लोग भी मानो अपने निकट के मित्र की तरह मुस्कराते प्रतीत हो रहे थे। अक्सर रास्तों के राउन्ड अबाउट पर गाड़ी भगाने की आदत होते हुए भी आज एक नौ सिखिये की तरह रुक के और चारों ओर नज़र घुमा के गाड़ी चलाने में बड़ा ही मज़ा आ रहा था। शायद पहली बार ये बात ध्यान में भी आई कि शारजा में भी रास्तों के ईर्द गिर्द हरे पौधे और गेंदे के फूल लगाए गए हैं, हाँ साथ में थोड़ा कुड़ा भी हो तो क्या हुआ? पीछे से तेजी से आने वाला अरबी भी आज बिना गाली खाए ही हमसे फ़ौरन साइड पा गया। रोज़ाना सुबह बजने वाली गणेश स्तुति के बदले रेडियो ४ बजने लगा और गाना भी क्या लगा था!! ''आज उनसे पहली मुलाकात होगी, फिर आमने सामने बात होगी... फिर होगा क्या क्या पता क्या खबर!!'' ''सावन के अंधे को सब हरा ही दिखता है'' आज जब सोचता हूँ तो पता चलता है इस कहावत का मतलब!
सुबह: १०.२० बजे
सोच ही सोच में पता नहीं कब बुर्ज खलिफ़ा तक की दूरी तय करली और लीजिए साहब हम तो पहुँच गए वहाँ के मुख्य प्रवेशद्वार पर... प्रकाश जी कि मेहरबानी से हमारा नाम दरवान के लिस्ट में था। अब पता नहीं वे हमारे सम्मानीय चेहरे से प्रभावित हुए थे या हमारी साप्ताहिक सफ़ेद कुर्ता पजामा वाली पोशाक से द्वारपाल ने कमसे कम दो मिनटों तक हमें ताका और फिर हँसते हुए ही विनम्रता से ही सही, हमारा पहचान पत्र माँगा। वैसे दुबई में अपने जेन्टलमेन होने का प्रमाण हम आए दिन मनसा... वाचा... कर्मणा देते ही रहते हैं.. पर वहाँ जब के जल्द से जल्द ऊपर जाने की उत्कंठा थी, और यह भी आस थी कि आज तो सबिहा जी से भी पहले हाजरी लगानी ही है। उस वक्त अपनी पहचान करवाना हमें दिलो दिमाग में नश्तर की तरह चूभा, 'पर मरता क्या न करता?' के नियम से हमने अपना पहचान पत्र दिखाया जो छान बिन के बाद करीब एक मिनिट के बाद हमें लौटाया गया और आगे जाने की अनुमति मिली। अभी २५ कदम भी आगे नहीं बढ़े थे कि फिर एक नई चौकी आई जहाँ कम से कम तीन लोग लग गए हमारी गाड़ी की जाँच करने। ऊपर, नीचे दाये बाए अन्दर-बाहर और उन अनगिनत पहलुओं का मुआइना हुआ जिनके बारे में कभी सोचा तक नहीं कि वे सभी गाड़ी के ही हिस्से हैं। हमारे लिए जब एक-एक पल किमती था, उपर के डेक पर पहुँचने के लिए उन बन्दों ने कमसे कम १० मिनट लगाए जाँच में। हाँ... चलो उसी बहाने मुझे भी अपनी गाड़ी और डिकी में पड़े कबाड की जानकारी तो हुई जिन में अन्य चीजों के अलावा एक कमीज, तौलिया, चाय का मग और एक सिम कार्ड भी शामिल था...
सारे वातावरण में मुझे शर्लोक होम्स जैसी गुप्ताता और जेम्स बोन्ड जैसी सुरक्षा पद्धति का अहसास हुआ... इन सब में वो सुबह वाली मौसमी महक जाने कहाँ दब गई, पता ही नहीं चला... पर कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है ना! मैंने उन सारी औपचारिकताओं को नज़र अन्दाज़ करते अपना मुड बनाए रक्खा। मेरी और गाड़ी कि सुरक्षा जाँच के बाद वहीं आगे गाड़ी पार्क करवा के हमें एक विजिटर्स कार्ड दिया गया और एक सिपाही कि निगरानी में लिफ़्ट तक पहुँचाया गया मैं तो अभी अपनी ही मानसिक कश्मकश में था कि लिफ़्ट पहुँच गया। मैं लिफ्ट को निहार ही रहा था कि शायद लिफ्ट मेन ने हल्के से कुछ कहा जो या तो मैं सुन नहीं पाया या समझ नहीं पाया। वहाँ आइने में मैं अपना हुलिया ठीक ही कर रहा था कि मुझे कुछ शब्दों से और कुछ इशारों से कहा गया कि मैं अब ७५वीं मंज़िल पर पहुँच चुका हूँ और अब एक दूसरी लिफ्ट मुझे और ऊपर ले जाएगी। ज्योंहि मैं कुछ आगे सोंचू एक फ़िलिपिनो बच्ची मुझे करीब-करीब हाथ पकड़ के एक दूसरी लिफ्ट तक ले गई। मेरा नाम और विजिटर्स कार्ड जाँचा और औपचारिक स्मित से इशारा करके एक लिफ्ट में पहुँचा दिया। फिर वही सफ़र फिर हुलिया ठीक करने की चेष्टा फिर लिफ्ट में उनकी कातिल निगाहें... अलबत्ता औपचारिक मुस्कान के साथ और लीजिए मैं पहुँच गया १५० वहीं मंज़िल पर। बाहर निकलते ही एक और गोरी सुंदरी सस्मीत स्वागत में कुछ कह रही थी जरूर, पर मेरे कानों में तो मानो किसी ने आरडिएक्स भर दिया हो ऐसा लगने लगा। चार्ली चैप्लिन का ज़माना याद आ गया जब बिना संवाद के फिल्में बनती थी ना...। आप सामने का नज़ारा देख सकते हैं पर कुछ भी सुन नहीं सकते। मेरी परिस्थिति का शायद उन्हें अन्दाज़ा लग गया होगा तो वो सुन्दरी ने मुझे कुछ टॉफियाँ दी, चबाने के लिए। मेरा चेहरा कितना एक्सप्रेसिव है, मेरी परिस्थिति बयान करने के लिए! मुझे गर्व हुआ और तब एहसास भी हुआ कि ये नौटंकी वाले बार-बार मुझे ही क्यों कास्ट करते हैं, एक्सप्रेसिव रोल्स के में... खैर... एक-दो टॉफियाँ चुसने-चबाने के बाद आहिस्ता मेरे कानों वाला आरडिएक्स बर्फ़ की तरह पिघल गया और कुछ मोम की तरह... (जो कल ही पत्नी ने दियासलाइ से निकाला) और अब हमने प्रस्थान किया अपनी आखिरी मंज़िल की ओर पहले एक छोटी-सी लिफ्ट में और उसके बाद एक सिढ़ी के सहारे।
सुबह: १०.४० बजे...
हम वहाँ थे जिसकी हमने सिर्फ़ कल्पना ही की थी या कि सपनों में ही सोचा था। बुर्ज खलिफा का ओब्जर्वेशन डेक एक ऐसी जगह जहाँ पर पहुँचकर आप अपने आप को सच्चे माइने में 'एट द टॉप ऑफ द वर्ल्ड' कह सकते हैं। यह हमारे लिए गर्व की बात कई कारणों से थी, पहल तो यह कि आज तक जिन्दगी में कभी सातवीं मंजिल से ऊपर नहीं गए, दूसरा यह कि हमारे खानदान के इतिहास में भी हम ही पहले बने जो कि इतनी ऊँचाई हासिल कर सके। अचानक तेनसिंग और हिलेरी-सी रोमांचक उत्तेजना हमारे बदन में फ़ैल गई। हमारे खानदान का कोई ध्वज नहीं है अगर होता तो हम जरूर ले आतो और पाँच ही मिनटों के लिए ही सही बड़े गर्व से फैलाते। अरे हाँ वैसे देखें तो थिएटरवालाज में भी तो हम ही सबसे पहले पहुँचे हैं। सबिहा जी से भी पहले। पर काश हम थिएटरवालाज का एक बैनर ले आते और यहाँ फैलाते, पता नहीं शायद प्रकाश जी ही ले आए। मैं इन बातों से उलझा ही था कि वो सिपाही जो साथ में आया था विनम्रता से जाने के इजाज़त माँगने लगा और चूँकि मैं एक चुस्त भारतीय हूँ इस औपचारिकता का मतलब समझ सकता हूँ और मैंने भी बगैर कोई फ़ूटेज खाए उसे हल्के से ५० दिरहाम थमा दिए। उसे लेकर वो राजी तो हुआ लेकिन सन्तुष्ट नहीं और एक फाल्तू बोनी की वजह से अपने दुर्भाग्य को कोसता हुआ वहाँ से खिसक गया। सोचता होगा एक कूर्ते पाजामे वाले चाचा से और क्या मिल सकता भी है। जाते-जाते वो कुछ गुनगुना रहा था या मुझे कोस रह था मेरी तत्कालीन एक्साइट्मेन्ट में मेरे लिए वो कुछ माइने नहीं रखता था। वो गया और अपने पीछे सीढ़ियों वाला दरवाजा उसने बन्द किया।
ओब्जर्वेशन डेक इक टेरेस नुमा बड़ा-सा गोल कमरा ही है जो दो हिस्सों में बँटा है, मध्य का हिस्सा एक गोल बन्द कमरा है, जिसकी सम्पूर्ण दिवारें काँच की बनी हैं और दूसरा हिस्सा बाहरूनी है जो कि एक खुले टेरेस की तरह और जो अन्दुरूनी कमरे के चारों ओर फैला हुआ है। अन्दरूनि हिस्सा सेन्ट्रली एयर कन्डीशन्ड है और वहाँ बैठने के लिए सोफ़े और कुर्सियाँ रखी गई हैं। फर्श पर सुन्दर पर्शीयन कालीन बिछाये गए हैं। एक छोटे केफ़ेटेरिया का प्रयोजन है और पुरुषों ओर स्त्रियोँ के लिए अलग-अलग प्रशाधन कक्ष है जबकि बाहर के हिस्से में बाहरी दीवार है जो करीब ८ फिट ऊँची है और जेड़े काँच की बनी है जिससे आप चारों ओर नज़ारा देख सकते हैं। हर २५-३० फूट की दूरी पर दूरबिन लगे हुए हैं और पीछे कि ओर दीवार को लगके फूल पौधों के गमले रखे गए हैं। फ़र्श पर इटालियन लगने वाले कीमती पत्थर बिछाये गए हैं।
मैं इन्हीं चीजों को देखने परखने में मशगूल था कि मुझे अहसास हुआ कि हवा बड़ी जोरों से चल रही है जो पल में आप को यहाँ से वहाँ हिलाने में समर्थ है। वातावरण में जो सन्नाटा, तेज हवा और उसकी तेज गति का प्रतिकसम कानों से होके बदन को काटती आवाज। अब शायद फ़िल्मों के साउन्ड इफ़ेक्ट्स में ही सुनी थी ऐसी आवाज और उसमें मिली थी वो ओसिली बूँदें... पता नहीं कि क्या इसे बारिश की बूँदें कहे या ओस की!! बरहाल उनके छिड़काव ने एक नई ताजगी का अहसास करवाया। चेहरा एकदम ही सार थकान भूल कर उन बून्दों से रिफ्रेश हो गया। एकदम ही मुझे वो क्षण याद आ गया, जब दाढ़ी बनाने के बाद नाइ चेहरे पर स्प्रे मारकर ताजगी का अहसास करवाता है। फर्क सिर्फ उतना ही था कि इस छिड़काव में वो टेल्कम पाउडर वाली बनावटी खुशबू नहीं थी। ये सोचता हि था कि अचानक ही कोहरे ने मुझे चारो ओर से घेर लिया। अब सोचता हूँ कि असल में वो बदल ही थे जिसकी कल्पना मात्र से आज भी रोमांच मिलता है। एक घनी सी चादर फैल गई, जिसके आर-पार कुछ भी दिखाई न दे, कुछ डर से और कुछ रोमांच से मैं जहाँ था वहीं स्तब्ध रह गया और उस शीत लहर का मजा लेता गया। दूसरे ही मिनट, एक सूर्य किरण प्रकट हुई, पूर्व दिशा से और मानों एक वरिष्ठ पुलिस वाले की भाँति, मुँह की सिटि बजाते-बजाते सार बादलों को तितर-बितर कर दिया और आहिस्ता आहिस्ता वातावरण फिर से सूर्य किरणों से प्रफुल्लित हो गया। बाहरी गैलरी में मैंने चारों ओर घूम के दूर-दूर दुबई के नज़ारे देखें। जहाँ तक नजर पहुँची वहाँ तक के इलाकों को पहचानने की कोशिश की। उत्तर में शारजाह, दक्षिण में जबेल अलि पश्चिम में पाल्म जुमरा और अन्य वास्तु जिससे कि दुबई जगत में नये सिरे से जाना जाता है। खुद बुर्ज खलिफ़ा का साया भी इस वक्त युनियन हाउस तक पहुँचता था जो अपने आप में एक दिलचस्प नजारा था और चूँकि पूर्वी ओर से सूरज की रोशनी आ रह थी उस ओर रेगिस्तान के अलावा और कुछ नहीं प्रतीत होता था।
सुबह: ११-४५ बजे
इन नज़ारों का आनन्द लेते लेते अचानक ही याद आया कि मैं चौपाल के लिए आया हूँ और बाकी के लोग कहाँ रह गए? फिर ये सोच के मन मनाया कि आनेवाले सभी नीचे सिक्योरीटि की औपचारिकताओं में उलझे होंगे और वैसे भी पिछले कई दिनों से कौन समयानुसार आता है। यह दुबई है... एक माँगों हज़ार बहाने मिलेंगे, देर से आने के लिए। यह सोचक मैं वापस अन्दरुनि हिस्से में टहलने गया वहाँ कि चिज़ो का अवलोकन करने लगा। नजर केफ़ेटेरिया पर पड़ी पर वह तो बन्द पड़ा था। काश... एक कप चाय मिल जाती। बाहर के माहौल में गरमा-गरम चाय के साथ इन नज़ारों ओर बदलों का आनन्द कुछ अलौकिक ही होता। इस आशा के साथ अपने आप को दिलासा दिया कि शायद दोपहर की नमाज़ के बाद यह केफ़ेटेरिया खूल जाय। हाँ... पर तब तक तो धूप भी तो तेज हो जाएगी। थोड़ा अपने आप को भी कोसा इसलिए कि हर बार पूर्णिमा जी की चाय की ही इतनी आदत पड़ गई है, कम से कम आज तो घर से ही सबके लिए चाय आदि का कुछ प्रबंध करके आना चाहिए था। जैसे अनुज के घर, रिहर्सल्स में ले जाया करता था पर दूसरे ही पल सोचा कि ऐसी तो कल्पना भी नहीं कर सकते न कि इतने बड़े वास्तु में मेहमानों के लिए चाय पानी कि व्यवस्था न हो। निचली मंज़िलों पर, यानि कि १५० वीं पर तो ज़रूर व्यवस्था होगी और जब सभी आ जाएँगें तो मँगवा लेंगे। ये सोचते-सोचते ही वहाँ सोफ़े पर बैठ गया और काँच के बाहर देखने लगा। यहाँ से भी बाहरी नजारा कुछ हद तक दिख रहा था पर बाहरूनी वातावरण की वो ताज़गी यहाँ कहाँ? बारिश की बून्दों की बौछारे यहाँ कहाँ? फिर उठकर वहीं पर मैं टहलने लगा कि कब कोई आए और कब मैं उन्हें आकर देकर अपनी सबसे पहले आनेवाली चेष्टा की तारीफ करूँ और सुनु भी। जाने अन्जाने में पहले आने में आज सबिहा जी को परभूत करने का आनन्द भी व्यक्त होगा जो कि पिछले दो सप्ताहों से डिंग लगा रही थी पहले आ कर। इस बीच सामने नज़र आने पर प्रसाधन कक्ष का भी दौरा कर आया जो कि वास्तु के प्रभावनुसार काफी सुन्दर सजीला और स्वच्छ था।
सुबह: ११-३५ बजे
''यार अब तक तो कोई ना कोई आ जाना चाहिए था... ये कोई भी क्यों नहीं पहुँचा अब तक? अब इतनी भी भीड़ नहीं थी वहाँ नीचे सिक्योरिटी में कि इतना वक्त लगे। अक्सर देरी से आनेवाले लोगों का फोन या एसएमएस भी तो आ जाता है। आज तो वह भी नहीं, क्या बात है?'' www.chevybeat.co.in उसुलन किसी को फोन न करना हमारा नियम है और उसे निभाना चाहिए। देखते हैं चौपाल वाला फोल्डर वहीं सोफे पे रखकर फिर मैं बाहर के हिस्से में पहुँचा। अन्दरूनि हिस्से से बाहरी गेलेरी में जाने के लिए छह दरवाज़े हैं। बाहर निकलते ही फिर वही थंडी हवाएँ बीच-बीच में हल्की-सी फुहार ठंडी बुन्दों की। अल्बत्ता धूप अब ज़रा तेज होती महसूस हुई पर फिर भी एक नए दुर्लभ और अद्भूत हि अनुभव का अहसास दिलाती थीं जो आज से पहले कभी नहीं मिला। उन फूलों को और पौधों को देखने लगा जो छोटे-छोटे गमलों में लगाए गए थे। सुबह कि धूप में काफी आकर्षित लग रह थे। काश मेरा नया कैमरा होता साथ तो कुछ अच्छी तस्वीरें ले लेता इन फूलों की। चलो देखते हैं नहीं तो बाद में मोबाइल से ही ले लेंगे। क्या कोई पंछि आते होंगे इतनी ऊँचाई पर? और आकर बैठे भी तो यहाँ क्या चारा-पानी मिलेगा उन्हें? और यहाँ कि हाउसकीपींग वाले घोसला भी तो नहीं रहने देंगे उनका।
साथियों की अनुपस्थिति अब मुझे खलने लगी। क्या हुओ कोई भी अब तक क्यों नहीं पहुँचा और न कोई मेसेज भी बात क्या है। मैं दुविधा में पड़ गया किसको फोन करूँ या न करूँ? आखिर ऐसे हालात में उसुलों को थोड़ा हल्का भी तो किया जा सकता है, यह मन को मना के प्रकाश भाई से फोन करने का सोचके जेब से फोन निकालकर उन्हें फोन लगा ही दिया। १०-१५ सेकंड नो रीप्लाय... फिर से लगाया फिर वही बात नो रिप्लाय... क्या बात है। जब गौर से फोन देखा तो एक गहरा धक्का ही लगा पता चला वहाँ मोबाइल का कवरेज ही नहीं है। ओह तो यह बात है शायद इसीलिए बाकी के आने वाले मेरा सम्पर्क नहीं कर पा रहे हैं। न फोन न मेसेज। एक ओर जहाँ इस बात का संतोष हुआ तो दूसरी ओर यह अन्देशा भी जगा कि कहीं आज का कार्यक्रम रद्द तो नहीं हुआ? इन्तजार में जो मजा है वो मिलने में कहाँ। जैसी छिछीर लाइनें दिमाग में दोहराई जाने लगी। इन्तजार का फल मीठा होता है। तू सब्र तो कर मेरे यार वेगेरा.... वगैरा... योंहीं हाथ में पकड़ा मोबाइल देखा और वे फूल याद आ गये। गया उन गमलों के पास और मोबाइल के केमेरे से कुछ तस्वीरें निकली फूलों की, कलियों की उन्हें फिर प्रिव्यू में देखा कुछ को डिलिट भी किया। उसी तरह बुर्ज से दिखने वाले चारों ओर के और सीधे नीचे कि ओर दिखनेवाले नजारों को भई केमेरे में कैद किया।
सुबह: ११-५० बजे
फिर अन्दरूनि कमरे में आकर एक सोफे पे लम्बे पैर करके बैठ गया। बोरियत से परेशान होने लगा। अमा यार, अब तो हद्द हो गई कोई भी क्यों नहीं पहुँचा अब तक? जैसे कि प्रकाश जी ने बताया था कि आज की चौपाल का कार्यक्रम सभी की सहमति से ही बनाया गया है और वैसे भी ऐसा सुनहरा मौका कौन गवाना चाहेगा कि आज यहाँ चौपाल हो और लोग आम दिनों की तरह बहानेबाजी करे नहीं आने के लिए। प्रकाश जी के नए घर से तो यह जगह काफी नजदीक है और वही हाल सबिहा का भी है... अब तक तो आ जाने चाहिए थे। पूर्णिमा जी को आज क्या हो गया? और बाकि के साधू जो कि अपना उल्लू सीधा करने के लिए ही चौपाल में इद के चांद की तरह दिखाई देते हैं? वे सब कहाँ गुम हो गये? बुर्ज खलिफ़ा के चौपाल से भी बड़ी कोई और तक इस वक्त उन्हें कहाँ मिल गई कि वे भी अब तक नहीं पहुँचे। सब के सब शोर्टसाइटेड हैं दूर कि कभी सोचते ही नहीं।
सब के सब अब बच्चे तो रहे नहीं कि उन्हें वक्त की पाबंदी के बारे में सिखाने की आवश्यकता हो, लेकिन बात यहाँ पाबंदी की नहीं एटिट्युड की है। वाह यहाँ अपने मतलब कि है. स्वयं कि स्वार्थ की जिससे ऊपर उठके कौन सोचता है और क्यों सोचे जब स चलता है इसी तरह।
अगर इनमें से किसी एक की कहानी या स्क्रिप्ट आज पढ़ी जानी होती, याकि अगर आज फ़लाँ फ़लाँ मेगेजिन में एकाद पाँच पंक्तियों का ही सही आलेख छपजाता तो जरूर वो भाग के सबसे पहले पहुँचता और अपनी नुमाइश करते।
इनमें कोई तो ऐसे भी है जिन्हें अलग से बुलावा चाहिए, चौपाल में आने के लिए मानों चि. मनन सोनि की शादी होती हो और बारात उनके बगैर निकले ही कैसे?
और ना ही ये कमबख्त फोन काम कर रहा है। ओफ ऐसी टेकनोलोजी भी किस काम कि जो ठीक जरूरत के समय ही मुकर जाय? ना आप बात कर सकते हैं न ही एसएमएस! क्या फायदा इसे पालकर रखने का? इन्टरनेशनल रोमिंग लाख करवाइए पर यहाँ दुबई में ही अगर नहीं चलता तो क्या काम का?
दोपहर: १२.२० बजे
छत पे लगे आइनों और जुम्म्रों को अनायास ही निहारते अब काफी वक्त भी निकल गया है दो तीन तस्वीर खींचने के बाद उनमें दिलचस्पी भी कम हो गई। धीरे-धीरे अकेलेपन का अहसास जितना तेज होता गया उतना ही गुस्सा अबतक नहीं आने वाले साथियों पर भी आने लगा। एक विचार आया कि क्यों न नीचे चलकर एक चक्कर लगाया जाय पर दूसरे पल ही यह सोचा कि देखते हैं थोड़ी देर और नहीं तो घर ही चलते हैं। अब क्या खाक होगी चौपाल? उसी में से याद आ गया पीछली चौपाल, जब १२-३० के बाद शुरू हुआ था संक्रमण का प्रयोग। शायद इस ख्याल ने एक टोनिक का काम किया और थोड़ा ही सही हौसला दिलाया। आमीर खान याद आ गया और उसके जैसे ही दिल पर हाथ रखके जोर-जोर से आ इज वेल गाने लगा। अफसोस वह मेरे साथ गानेवाला या उस गाने की तारीफ करने वाला कोई भी नहीं था सिवा मेरे अपने ही साये जो कि छत और दीवारों पे लगे आइनो से मेरी ही मनस्थिति प्रतिबिम्बित कर रहे थे।
साथ लाए फोल्डर पर एक नजर फैलाई और इसके अन्दर कुछ पन्नों को यों ही निहारा और फिर बन्द कर दिया। हर दो तीन मिनिटों में घड़ी की ओर देखना एक मजबूरी हो ही गई और बिना कारण अपनी घड़ी और सामने लगे केफेटेरिया की घड़ी का समय मिलाने लगा। जो कि लगभग एक सरीखा ही था।
फिर बाहर वाली गेलेरी में आ पहुँचा। हवा की तेजी में कुछ कमजोरी महसूस की और तापमान गरमी को और बढ़ता-सा पाया। वो हल्की बूँदो की छिड़काई न जाने कही लुप्त हो गई थी और अभी-अभी एकाध घंटे पहले जो महसूस की थी वो ताजगी भी मेरे मन के चैन और शान्ति की तरह मानो बिखरती जा रही थी। दुनिया के सबसे बड़े वास्तु को बस में करने की सिद्धि जो सुबह-सुबह दिमाग पे छायी थी अब मानों पिघलकर पसीने की बूँदो के रूप में चेहरे और बदन पे जम रही थी। वो आनन्द, जिग्यासा, रोमांच जो सुबह-सुबह यहाँ आते ही पाया था। मानों अहिस्ता-अहिस्ता अपनी अहमियत खोता जा रहा था। इसीलिए शायद हमारे शास्त्रों पुरानों और गुरुजनों ने कहा कि भौतिक वाद का सुख क्षणभंगुर होता है और वाकई कितने ही ऐसे आनन्द है जिसका मजा आप अकेलेपन में नहीं उठा सकते। उस आनंद को झेलने के लिए और बढ़ाने के लिए उन्हें बाँटनेवाला कोई साथी, यार, दोस्त का होना भी जरूरी होता है। शायद इसीलिए हमें सोशल एनीमल कहा गया है।
दोपहर: १२-४० बजे.
कुछ भी हो गड़बड़ जरूर है कहीं इन लोगों ने मुझे एप्रील फूल की तरह बेवकूफ तो नहीं बनाया? नहीं अगर ऐसा होता तो फिर नीचे उस सिक्योरिटि वाले के पास मेरा नाम केसे होता? और वो मुझे क्यों छोड़ता ऊपर आने के लिए?
और कुछ पैसों के लिए यहाँ के सिक्योरिटी वाले तो पटेंगे नहीं।
और वैसे भी इस तरह झूठ बोलकर प्रकाश जी को क्या मिलेगा?
अब तो दूर-दूर से अजान की आवाजें भी आने लगी है। दोपहर की नमाज का भी समय हो गया। अब तो यहाँ रहना बेकार है। चलो निकल लेते हैं। ऐसे ही सोचते-सोचते आखिरी बार गेलेरी का पूरा चक्कर लगाया। उन नजारों को फिर से देखा जो अब सूरज की तेज रोशनी में फिकें लग रहे थें। बुर्ज खलिफा का साया भी मेरी तरह ही मानो अपेक्षाओं की परिकाष्ठा छूकर अब हार कर वापस अपने घर लोटने की चेस्टा करते हुए सिमट कर एक छोटे से दायरे में आकर सिमित हो गया था। उन सबको एक गहरी साँस लेते आखरी सलाम दे कर मैं भीतरी कमरे में आया। फिर से प्रसाधन कक्ष हो आया और पहुँचा उस दरवाजे पर जहाँ से मुझे कुछ सीढ़िया उतरकर नीचे जाना था।
मैंने दरवाजे का हेन्डल पकड़ा और घुमाया और साथ ही दरवाजे को अपनी ओर खींचा। न तो हेन्डल घूमा और न ही दरवाजा खुला। मैंने फिर से कोशिस की फिर वही परिणाम। शायद दरवाजा उस ओर खूलता होगा यह सोचकर इसबार मैंने हेन्डल घूमाके दरवाजे को समाने की ओर धकेला, पर नहीं दरवाजा नहीं खुला। यह क्या मेरी मानसिक थकान का परिणाम है? मैंने घड़ी दो घड़ी गहरी सांस ली अपने चारों ओर देखा और शान्त मन से फिर से अपने दोनों हाथों से हेन्डल पकड़ा, घुमाया और एक झटके से पूरे जोर से दरवाजा अपनी ओर खींचा। एक... दो... और ये तीन...
एक खट्-सी आवाज़ आई, मैं अपनी जगह से करीब तीन-चार फूट पीछे पहुँचा और गिरते-गिरते बचा। पर यह क्या दरवाजा तो खुला नहीं और पूरा का पूरा हेन्डल मेरे हाथों में आ गया।
झट से ऊठकर मैंने उस हेन्डल को फिर अपनी जगह पर लगाने की कोशिश की जो कि बेकार ही होनी थी। कुछ पल हेन्डल को देखा तो कुछ पल दरवाजे के उस हिस्से को जहाँ वो हेन्डल लगा हुआ था। कुछ नया नहीं सुझने पर बगैर हेन्डल के ही दरवाजा खोलने की कोशिश की। बाजु से ऊपर से नीचे से परन्तु सब व्यर्थ।
क्या करूँ... क्या कर सकता हूँ... उठ के सारे कमरे का फिर एक चक्कर काटा। शायद कोई और दरवाजा या कोई और उपाय हो। जहाँ बाहर निकला जाय पर नहीं, कहीं कोई भी आस नजर नहीं आई। ये तो दुष्काल में तेरहवा मास वाली परिस्थिति हो गई। खुद पर काफी गुस्सा आया कि क्यों अकेले ही चला आया यहाँ पर दूसरे ही पल गुस्सा दया और करुणा का रूप लेने लगा।
क्या ये उस बन्दे का काम तो नहीं, जो मुझे छोड़ने आया था। कैसे मुँह बना रहा था जब मैंने पैसे दिए। उसे अगर कम लगे थे तो कहता मुझे। यों बिना बताये ही खुन्नस निकालने का क्या मतलब? कमप्लेन करूँगा मैं उसकी।
कोई चारा भी तो नजर नहीं आता यहाँ से मुक्ति का। अब तो बस एक ही उम्मीद थी कि अगर अपना ही कोई थियेटर वाला आ जाए तो बात बन जाएगी, वरना २ या ३ बजे के बाद जबकि यहाँ के सफाई वाले और ये केफेटेरिया वाले ड्यूटि पर आए तब काम बन सकता है और कोई सम्भावना बनती नजर नहीं आती थी। आज से १० साल कम उम्र का होता तो शायद एकाध शीसा तोड़ देता नहीं तो कम से कम अपना मोबाइल तो जरूर जमीन पर पटकता। उस एंग्री यंग मेन की तरह जोकि आज कल निःशब्द बनता जा रहा है,, जैसे मैं हूँ इस वक्त।
इस यातना से अबतो छुटकारा कमसे कम दो घंटे तक नहीं होने वाली, यह सत्य मानेत, जुते निकाल के अपने फोल्डर को सिरहाने रखके एक बड़े सोफे पे जोकि दरवाजे के ठीक सामने था मैं लुढ़क गया। तरह-तरह के विचार मानस पटल पर घूमने लगे और उन विचारों की डोक्युमेन्टरी चलने दी। कहीँ उसमें से कोई उपया मिल जाय इस समस्या को हल करने के लिए। उन्हीं विचारों की चद्दर ने पता ही नहीं चलने दिया कब नींद की आगोश में कैद हो गया। हो सकता है यह मेरी सहज प्रकृति के कारण या फिर वे जयपुर वाले आलू के पराठों की वजह से खर्राटे भरके सोते मुझे देर नहीं लगी।
दोपहर:२-३० बजे
भला हो वहाँ की एसी-मय वातावरण का और हमारे भरे पेटका, दो घंटे कहाँ निकल गए पता ही नहीं चला। सुबह से अजीब-सी ड्यूटी पर लगे दिमाग को शायद कुदरत भी थोड़ा आराम देना चाहती हो। उम्मीद फिर जग उठी। अन्दाज से तीन बजे तक तो स्टाफ भी आ जाएगा और दूसरे पर्यटक भी जो यहाँ पहुँचेंगे। बस और कुछ ही देर। यही सोचते लेटा रहा और करवटे बदलता रहा वहीं छत और दिवारों को निहारते हुए जो कि बदलते समय के साथ अब फिंकीसी और मामुली नजर आ रहीं थी।
कमाल है उन सिक्योरिटि वालों का भी। जब सुबह १०-३० बजे मुझे ये विजिटर्स कार्ड दिया है और अगर अब तक मैं लौटा नहीं तो कमसे कम जाँच करने तो आना चाहिए कि नहीं?
अब तक तो उनकी ड्यूटि खत्म भी हो गई होगी और नये आने वालों को भी तो इस बात की जानकारी दी गयी होगी। निकम्मे साले सबके सब क्या सेक्योरिटि? कौन सी सिक्योरीटि?
दोपहर: ३-३० बजे
ये अभी तक कोई आया क्यों नहीं? अगर चार बजे से भी पर्यटक आने वाले हो तो भी यहाँ के कर्मियों को तो अब तक तहेनात में आ ही जाने चाहिये ना? कोई पता नहीं इनका भी!! इसी विचार के साथ अलग-अलग तरह से खिलवाड़ करता रहा, सिर्फ एक दूसरे विचार को दूर रखने के लिये और वो था कि कहीं शुक्रवार को सार्वजनिक छुट्टी की वजह से यहाँ तक आने की सुविधा बन्द न हो! हे भगवान! अगर ऐसा है तो वाट लग गई।
खैर देखते हैं और कुछ सुझने पर। फिर दो-तीन चक्कर लगाए फिर आके केफेटेरिया की एक कुर्सी पर बैठा फिर ऊठी, टहलता रहा।
शाम: ४-३० बजे
दिल की धड़कने अब मिनटों-मिनटों में तेज हो रही थीं। करीब-करीब यह तो तय ही हो गया कि अब पर्यटकों के आने की कोई भी सम्भावना नहीं है और यह भी तय है कि अब छूटने की बड़ी तबाही आ सकती है जब कोई सिक्योरिटि वाला या कि कोई स्टाफ वाला यहाँ पहुँचे वरना तो राम जी ही मालिक है। कुछ उपाय ढूँढ़ने की गरज से फिर बाहर की गैलेरी में पहुँचा। एक-दो चक्कर लगाए क्या किया जाय जिससे कि किसी का भी ध्यान आकर्षित कर सकूँ? कैसे कुछ संकेत भेजूँ नीचे एक अजब मजबूरी का अहसास होने लगा, कि इतने बड़े शहर के मध्य होते हुए भी अकेलापन। जो कि एक कारावास से कम नहीं है और हालात यों ही रहे तो ये कारावास एक पागलखाना भी साबित हो। एक विचार आया क्यों न कोई चीजी फेकी जाए? क्या फेंके? ये गमला? नहीं नहीं किसी के सर में लगा तो बेचारे के बारह बज जाए। अन्दरूनी चीजों का भी मन ही मन जायजा लिया कुछ है फेंकने जैसा? कुर्सियाँ... सोफे... टेबल... काँच की फूलदानी नहीं कुछ नहीं कागज के फूल... हाँ हाँ क्यों नहीं कोशिश की जा सकती है। फौरन गया अन्दर, निकाल कुछ कागज के फूल और बाहर आकर कुछ असली फूल भी जोड़ा उनमें और ऊछाले उन सबको उस ८ फूट ऊँची काँच की दिवार परे पर ये क्या? कागज के फुल तो उड़ गए हवा के झोकों के साथ, पहले उपर की ओर फिर न जाने कौन-सी दिशा में दूर दूर... और ये ही हास असली फूलों का भी हुआ। पवन के झोकों के साथ बह गए मीलों दूर। जाहिर है जहाँ भी वे गिरेंगे जो मैंने चाहा था वो संदेश तो देंगे नहीं। क्या गमला फेंकी जो भी होना हो हो जाय। एक बार नीचे गिरेगा तो किसीना किसी का ध्यान में तो आएगा ही और जाँच भी होगी। उसी बहाने कम से कम अब उन्हें याद आए कि कोई ऊपर गया है और अब तक लौटा नहीं पर अगर वे किसी व्यक्ति के सर पे गिरा तो? नहीं नहीं ये उपया नहीं तो और क्या करें? एक बार एस.एम.एस. में आया था। ये मोबाइल में कुछ तो नम्बर है जो लगान से खतरे का इशारा भेजा जो सकता है काश वो नम्बर सेव किया होता। अब पता नहीं कि बिना कवरेज के इलाकों में वो काम करता ही नहीं। खैर छोड़े...
शाम: ५-३० बजे
धूप अब काफी कम हो गई है। हवा भी धीरे-धीरे नम और ठंडी हो रही है। रफ्तार भी बढ़ रही है। बुर्ज खलिफा का साया अब सुबह से विपरित दिशा में फैल चुका है। न जाने उस रेगिस्तानी इलाके को क्या कहते हैं। क्या फर्क पड़ता है देखते ही देखते ७ घंटे बीत गए। इस जगह लेकिन अब भी कोई उपाय नजर नहीं आ रहा यहाँ से बाहर निकलने का।
तेज बहती हवा ने एक नया ही विचार सुझाया, क्यों न यहाँ से कुछ लहराया जाय? अगर उसे कोई देखले तो काम बन जाएगा। क्या लहराए? उउउउ... कालिन, पर्दे... नहीं नहीं यस फौरन अपना कुर्ता निकाला और अन्दर से एक कुर्सी ले आया। सामने वाली काँच की दिवार से कुर्सी को रखा और कुर्ते का एक हिस्सा काँच और कुर्सी के बीच में फँसा दिया और कुर्सी पर चढ़कर दूसरा सिरा उस दिवार के बाहर खुली हवा में फैलाता हुआ छोड़ दिया। जितना चाहा था उतना बड़ा तो नहीं पर कुछ तो लहरा रहा था हवा में। बाहरी दिवार से भी परे शायद कोई देख पाए उसे और उसे सुझे की वह जा कर नीचे सिक्योरिटि वाले से कहे... उसी विचार में इसी तरह दूसरी ओर फैलाने के लिए अपनी बनियान भी निकली और ठीक उसी तरह कुर्ते से सामने वाली बाजु में उसे एक और कुर्सी के सहारे लहराया। हे भगवान... कोई तो देखे इन्हें... परन्तु दूसरे ही क्षण इस उम्मीद पर भी पानी फैल गया। इतनी ऊँची इमारत पर इतने नीचे से यह कुर्ता और बनियार कितने छोटे देखेंगे? कौन गौर करेगा उस पर? और दिख भी गया तो जरूरी नहीं कि देखनेवाले सही मतलब निकले इसका! हताश हो कर वहीं बैठ गया... जिस कुर्सी के सहारे बनियान लहरा रहा था उसी कुर्सी पर बैठ गया और कुछ और प्रयास के बारे में सोंचने लगा।
शाम: ६-३० बजे
ज्यों ज्यों बिदा लेते सूरज की किरणें रंगीन परन्तु कमजोर होती जा रही थी मेरी उम्मीदें और यहाँ से जल्द निकलने की सम्भावना मिनिट बे मिनिट कम ही होती जाती थई। उठ कर के अनयास ही चक्र लगाता रहा और उस हिस्से में पहुँचा जहाँ से कुर्ता लहराया था। ओह गोड यह क्या? तेज हवाएँ उस कुर्ते को अपने साथ ९-२-११ कर चुकी थीं। ये क्या हुआ? दूसरे ही पल भागकर बनियान वाले हिस्से में पहुँचा तो जाहिर है वो भी अलविदा कर चुका था। हे राम ये क्या एक छोटी-सी उम्मीद भी हवा के झोकों ने उड़ा दी। निराश हो कर वहीं बैठ पड़ा। सर घूटनों और दोनों हाथों के बीच दबाए, रोने की हरकत नाकामयाब न कर सका अब क्या, अब क्या?...
एक ही उम्मीद रातपाली वाले कर्मी और सिक्योरिटी वाले करीब ८ बजे ड्यूटि पर आते होंगे। बस अब तो वो ही आखिरी आस बच गए थी।
बाहर अब आहिस्ता-आहिस्ता अन्धेरा छा रहा था। वातावरण काफी ठंडा हो रहा था। हवाने भी काफी तेज पकड़ा था। दूर सुदूर ही डूबते सूरजे की किरणें शायद शर्मिन्दगी से गुड बाय कर रही थी मानो मुझे आश्वासन दे रही हो कि बस हम सब जाते ही सुबह को भेज देंगी और सुबह होते ही तुम आजाद हो जाओगे... दूर फैले दुबई के छोटे बड़ी मकान अपनी रोशनी टिन्टेड काँच की खिड़कियों से देखते नजर आते थे। मानो जुगनू एक दूसरे को हेलो-हाई कहते हों। मैं फिर भीतर के कमरे में पहुँचा। दिन भर जिन प्रकाशित जुम्मरों और दियों को मैंने नजर अन्दाज किया था उनकी अहमियत अब साबित होने लगी थी। पानी पीने की इच्छा हुआ पर बन्द केफेटेरिया में उसकी कोई गुंजाइश नजर नहीं आई न ही वहाँ वेन्डिग मशीन था जिसमें से पानी की बोतल मिलती। प्रसाधन कक्ष का विचार आया पर प्यास उतनी भी तीव्र नहीं थी कि वहाँ के नल का पानी पिया जाता।
शाम: ७-३० बजे
बस्स अब आधा घन्टा और फिर तो रात पाली वालों को आना ही है। मैंने फोल्डर में से कुछ पन्ने निकाल जोशी जी की कहानी, परसाइ जी का लेख, खूसरों कि रुबाइयाँ, संक्रमण की कहानी सब ही आँखों के सामने से निकाला, कुछ पढ़ने का प्रयास किया। पर निर्थक साबित हुआ। भूखे भजन न होए गोपाल। उसी बात पर थोड़ी सी ही सही भूख की भी याद आइ। काश इस फोल्डर में कुछ खाने का भी होता, हँस पड़ा अपनी ही नादानी पर। कुछ गनगुनाने की कोशिश की पर सूर ना सजे क्या गाऊँ मैं? जैसे हालात थे... क्या से क्या हो गया? तेरे प्यार में.., ये कहाँ आ गए हम? अए दिल कहा तेरी मंज़िल.., निर्बल से लड़ाई बलवान की... ये कहानी है दिये कि और तूफान की.. आदि कई गानों की पंक्तिया गुनगुनाता रहा।
रात: ८-३० बजे
रात जितनी भी सन्गिन होगी सुबह उतनी ही रंगीन होगी... अब तो हालात ये ही गाने के हो गए... अब तक की आखरी उम्मीद भी तड़पती मछली कि आखिरी साँसों की तरह देखते ही देखते नजर के सामने ही शहीद हो गई। अब तो यह मान ही लिया कि सुबह होने तक कोई सम्भावना नहीं है यहाँ से बाहर निकलने की। परन्तु जब अब तक नहीं लौटा तो पत्नी ने जाँच क्यों नहीं की? माना कि मेरा मोबाइल नहीं मिलता होगा पर प्रकाश जी को तो हो सकता है उनका नंबर न हो उसके पास। हम्म्म्... तो फिर पूर्णिमा जी उनका घर तो देखा है उसने, जाना चाहिए न वहा हो सकता है कि अब जाए अब मैंने भी कौन-सा सभी थियेटरवालों के नम्बर अपने घर की फोन-बुक में लिख रखे हैं? इन छोटी-छोटी बातों की अहमियत ऐसे वक्त समझ में आती है। हम्म काश मस्सकलि जैसा कोई कबूतर होता और कबूतर जा जा जाअ.. कह के सन्देशा भेज पाता। ये प्रकाश जी और अन्य थियेटर वालों को भी मानना पड़ेगा किसी को पड़ी नहीं है आने की और अगर केन्सेल भी हुआ हो तो कमसे कम वक्त पे बता तो देते हफ्फ्फ़। नादां से दोस्ती जी का जंजाल। अब क्या काटो रात भी यहीं पर।
रात: १० बजे
ये अपने आप अकेले रहना सचमुच राजीव खंडेलवाल वाले सच का सामना कि हॉट सिट से भी कठिन है। दुनिया भर के सब ग्यान की बातें फलस्फां, चरित्र, गुण, प्रभुता, विद्वता सब की सब धरी की धरी रह जाती है। सब बाह्य आडंबर और दिखाना साबित होती है। इसिलिये शायद कारावास का प्रयोजन है हमारे कानून में। आम जिन्दगी से परे जब आदमी अकेले में रहता है तब ही उसे अपने बारे में सोचने का मौका मिलता है शायद। याद आते होंगे अच्छे और बुरे कर्मों में जिन्दगी के सुख और दुःख दिन जमा और उधार का हिसाब। जैसे कि अब मेरे साथ हो रहा है।
एक फिल्मी की तरह आते हैं वे सारे नज़ारे, वे सारे क्षण जिनमें उदासी आनंद घमंड स्वार्थ अपराध प्रपंच क्षमता हार समझौता आवारागर्दी नेतागिरी सहाय दिखावा औपचारिकता और ऐसे ही कई और भावों का आदान-प्रदान किया अब तक की जिन्दगी में। क्या पाया क्या खोया क्या हो गया है क्या बाकी है कौन अपना है कौन पराया किससे मिलें किससे भागे क्या दोस्ती क्या दुश्मनी क्या जीवन क्या मृत्यु। क्या ईश्वर क्या नश्वर क्या ये जग क्या वह जग कहाँ हूँ मैं कौन हूँ मैं?
रात: १२-३० बजे
सहसा ही उठ खड़ा हो गया। गजब की ठंड लग रही थी। बाहर की तेज हवाओं की बेधक आवाज यहाँ भी सुनाइ देती थी। दरवाजों की सुराग में से कुदरत मानों बाहरी और अन्दरूनि तापमान में समतुलना लाने में कामयाब हो गई थी। बगैर कुर्ते और बनियान के इस मौसम का सामना करना मानो एक चुनौती ही थी। कितने आदि हो जाते हैं हम हर तरह के आवरणों के चाहे वो शारीरिक हो या मानसिक पहले मौके पर ही चित हो कर हार मान लेते हैं। अपने बदन के सुकड़कर वहीं लेटा रहा, दोनों पाव घुटनों से मोड़े छाती की ओर लिए और सिर घूटनों तक ऐसे ही लेटे-लेटे ढूँढता रहा। कहीं कुछ है जो कि लिया जा सकता है। बदन के उपर पर नहीं सोफे की गद्दियाँ लेदर से बनी थीं और चुस्त सिलाई से जड़ दी गई थी। बदन काँप रहा था और मारे सर्दी के निन्द ने भी चूहे बिल्ली का खेल चालू रखा था और तीसरी ओर पेट रह-रह के याद दिला रहा था कि उसे भी न्याय मिले करीब १२ घंटे से ज्यादा बीत गया है...
रात: २-३० बजे
बड़ी कशमकश के बाद केफेटेरिया के हिस्से से एक छोटा कालिन उठाने में कामयाब रहा। उसे घसीटकर अपने सोफे तक ले आया और उस कालीन को ही ओढ़े लेटा रहा। भगवान का नाम लेने से तकलीफ कम होती है। बहुत बार सुना और कहा भी है उसी हिसाब से हनुमान जी से लेकर महादेव, कृष्ण, राम, माता जी और माँ-बाप से लेकर सारे पितरों को याद और स्तुति करने लगा। प्रेमचंद जी की पूस की रात भी याद आने लगी और मन ही मन चौपाल की याद भी आई जहाँ यह कहानी पढ़ी गई थी। है न एक और संक्रमण लाख चाहो कि ना चाहो बात घुम फिर के चौपाल पर ही आ गई।
सुबह: ४-३० बजे
सहसा जाग उठा। शायद कुछ आहट हुई पर पाया कि कालीन जो बदन पर लिया था अपने ही वजन से नीचे गिर गया था और मरे ठंड के जाग उठा था। ज्यों त्यों हिम्मत जुटा के प्रसाधन कक्ष गया। बड़ी तीव्र इच्छा हुई वहाँ के नल के पानी पीने की, मगर बुद्धी ने साथ नहीं दिया। सिर्फ वहाँ के गरम पानी से अपना चेहरा जरूर धोया और उस गरमाहट के साथ इक गिलेपन का भी अहसास लिया। कैसा है यह अनुभव? और मुझे ही क्यों? क्या पाप या गुनाह किया है मैंने इसे भुगतने के लिए? क्या इसमें भी कोई संकेत है आने वाले किसी शुभ का? याकि यह संकेत है कोई दुष्कार्य का जिसका सजा आज मिली है। पता नहीं सजा देनी ही थी तो कम से कम चर्चा तो होती। अपने बचाव का मौका भी तो मिलना चाहिए था कि नहीं? अगर यह कानून है तो ये अन्धा कानून है। खैर, ऊपर वाले के घर देर है अंधेर नहीं है। इन्तजार करो वो देर कब खत्म हो और कब छुटकारा मिले इस यातना घर से...
शनिवार: सुबह ६-३० बजे
दरवाजे पर कुछ आहट-सी हुई। मैं सहसा जागकर उठ गया। अन्धेरे की भीड़ में से उजाले की कुछ किरणें आगे आने की कोशिश में थी, मदारी का खेल देखने को तरसते उन बच्चों के जैसे, जो कि आगे की ओर खड़े बड़े बुढ़ों के भीड़ के बीच में से नीचे झुककर अपना-अपना रास्ता बनाते आगे बढ़ते हैं। अभी सम्भल भी नहीं पाया था कि वो मुआ दरवाजा जिसने मुझे एक दिन की जेल की सजा ठोक दी थी, राम ब्रदर्स की फिल्मों के टाइटल ट्रेक की तरह एक खौफनाक आवाज करते-करते खुलता नजर आया।
हे भगवान आखिर छुटकारा... आखिर छुटकारा... मुक्ति फ्रीड...
छुटा इस कैद से... छूटा... छूटा... आखिर... इस जेल से...
देख लूँगा सबको... छोडूँगा नहीं...
क्या हुआ क्यों चिल्ला रहे हो? सुबह-सुबह और ये शक्ल तो देखो अपनी अध खुली आँखों से देखता हूँ तो सामने पत्नी खड़ी है बेड टी का कप ले के...
अरे यार, ये चाय बाद में... पहले मुझे पानी पिलाओ... ये कहते पास ही पड़े जग में से मैं दो गिलास पानी गट गटा गया... जब तक पत्नी अपने पल्लु से मेरे चेहरे पे जमी पसीने की बून्दे साफ करती...
वाह, क्या सुहाना मौसम है आज... २२ जनवरी की कोमल सुबह, सुबह की पुर्वाई और गुलाबी ठंड... छुटपुट सफेद बादलों की 'बाटिक प्रिन्ट' वाला गहरा, नीला और ताज़ा आसमान... अपने साप्ताहिक सफ़ेद कूर्ता पायजामा वाली पोशाक, सेन्डल और चौपाल वाला प्लास्टिक फ़ोल्डर लिए और मन ही मन आज के कार्यक्रम के रोमांच की कल्पना करते घर से बाहर निकला। कहीं निकट में फूल पौधों के अभाव से, गाड़ी के विंडशिल्ड पर ही ओस की बिन्दुओं की क्षणिक मुस्कान की मन ही मन प्रशंसा की और दूसरे ही क्षण, गाड़ी में घूसते ही, बूलडोज़र से वाइपरों द्वारा नज़र के रास्तों से उन मासुमों का अतिक्रमण हटाय...मानो जैसे एक क्षण के दिलेर कुदरत प्रेमी ने...दुसरे ही पल वास्तववादी और कुशल वाहन चालक की भूमिका ग्रहण कर ली हो। खैर ये कोई नई बात नहीं है तो ऐसे सुबह, सुबह का आनन्द लेने अकेले बाहर निकलना भी शादी के करीब ३० साल बाद, कोई नई बात नहीं है और ना ही शुक्रवार की सुबह घर गृहस्थी से हंगामी सन्यास ले के चौपाल के बहाने और पत्नी के शब्दों में कहो तो नौटंकी करने निकल पड़ना भी कोई नई घटना नहीं है।
आज की घटनाओं का नयापन मुख्यतः दो चीजों पर अवलंबित था, पहला तो दुनियाभर में आज तक की सबसे ऊँची विक्रमी इमारत का, बुर्ज खलिफ़ा का। यहाँ दुबई में बन कर तैयार होना और उसका अभी-अभी अनावरण होना और दूसरा, पिछले सप्ताह चौपाल में अली भाई और पूर्णिमा जी का यह सुझाव कि एक-आध चौपाल दुबई में भी होना चाहिए ताकि दुबई के नाट्यप्रेमिओं को भी इसमें शामिल होने का मौका और सहुलियत मिले। इन दोनों मुद्दों को जोड़कर आयोजक प्रकाश भाई ने एक बड़े ही दिलचस्प कार्यक्रम का आयोजन कर डाला। आज शुक्रवार २२ जनवरी की चौपाल उन्होंने बुर्ज खलिफ़ा के सबसे ऊपरी स्तर पर- जिसे औबज़र्वेशन डेक भी कहते हैं, वहाँ आयोजित किया। मानना पड़ेगा साहब, ये तो प्रकाश जी जैसे किसी लगलगाव वाले और गहरी जान पहचान वाले घुसाउ व्यक्ति का ही काम है, वरना उस जगह, इस प्रकार का आयोजन और वह भी शुक्रवार की सुबह असंभव ही है। जबकि मौजूदा दौर में, पैसे देने के बावजूद भी लम्बी वेटिंग लिस्ट होती है वहाँ ऊपर सिर्फ़ देखने जाने के लिए।
हम तो भैया बहुत ही खुश थे, इस मौसम में बिना मेहनत के आम खाने के जो मिलने वाले थे। शिष्टाचार के नाते हमने पत्नी से आग्रह किया कि वो भी साथ चले पर चूँकि उन्हें नोटंकिस ही मूलभूत एलर्जी है, बुर्ज खलिफ़ा भी आकर्षित नहीं कर पाया उन्हें। खैर ''बन्दर, क्या जाने अदरख का स्वाद?'' अब पता नहीं कि सचमुच ही मौसम हसीन था, या आज के अद्भूत, और एक ऊँचे विक्रमी और दर्शनीय जगह होने वाले चौपाल की अपेक्षा की वजह से ऐसा प्रतीत होता था, आज सारी ही सृष्टि कुछ ज्यादा ही रंगीन, खुबसुरत और निकट्तम लग रही थी। बटन दबाते ही लिफ्ट भी हाज़िर, एक ही चाभी में आज तो गाड़ी भी चल पड़ी। हरदम कमजोर लगने वाला कार फ्रेशनर आज तो बड़ा ही सुगंधित और मोहक मालूम हुआ। रास्तों पे चलते काले-गोरे लोग भी मानो अपने निकट के मित्र की तरह मुस्कराते प्रतीत हो रहे थे। अक्सर रास्तों के राउन्ड अबाउट पर गाड़ी भगाने की आदत होते हुए भी आज एक नौ सिखिये की तरह रुक के और चारों ओर नज़र घुमा के गाड़ी चलाने में बड़ा ही मज़ा आ रहा था। शायद पहली बार ये बात ध्यान में भी आई कि शारजा में भी रास्तों के ईर्द गिर्द हरे पौधे और गेंदे के फूल लगाए गए हैं, हाँ साथ में थोड़ा कुड़ा भी हो तो क्या हुआ? पीछे से तेजी से आने वाला अरबी भी आज बिना गाली खाए ही हमसे फ़ौरन साइड पा गया। रोज़ाना सुबह बजने वाली गणेश स्तुति के बदले रेडियो ४ बजने लगा और गाना भी क्या लगा था!! ''आज उनसे पहली मुलाकात होगी, फिर आमने सामने बात होगी... फिर होगा क्या क्या पता क्या खबर!!'' ''सावन के अंधे को सब हरा ही दिखता है'' आज जब सोचता हूँ तो पता चलता है इस कहावत का मतलब!
सुबह: १०.२० बजे
सोच ही सोच में पता नहीं कब बुर्ज खलिफ़ा तक की दूरी तय करली और लीजिए साहब हम तो पहुँच गए वहाँ के मुख्य प्रवेशद्वार पर... प्रकाश जी कि मेहरबानी से हमारा नाम दरवान के लिस्ट में था। अब पता नहीं वे हमारे सम्मानीय चेहरे से प्रभावित हुए थे या हमारी साप्ताहिक सफ़ेद कुर्ता पजामा वाली पोशाक से द्वारपाल ने कमसे कम दो मिनटों तक हमें ताका और फिर हँसते हुए ही विनम्रता से ही सही, हमारा पहचान पत्र माँगा। वैसे दुबई में अपने जेन्टलमेन होने का प्रमाण हम आए दिन मनसा... वाचा... कर्मणा देते ही रहते हैं.. पर वहाँ जब के जल्द से जल्द ऊपर जाने की उत्कंठा थी, और यह भी आस थी कि आज तो सबिहा जी से भी पहले हाजरी लगानी ही है। उस वक्त अपनी पहचान करवाना हमें दिलो दिमाग में नश्तर की तरह चूभा, 'पर मरता क्या न करता?' के नियम से हमने अपना पहचान पत्र दिखाया जो छान बिन के बाद करीब एक मिनिट के बाद हमें लौटाया गया और आगे जाने की अनुमति मिली। अभी २५ कदम भी आगे नहीं बढ़े थे कि फिर एक नई चौकी आई जहाँ कम से कम तीन लोग लग गए हमारी गाड़ी की जाँच करने। ऊपर, नीचे दाये बाए अन्दर-बाहर और उन अनगिनत पहलुओं का मुआइना हुआ जिनके बारे में कभी सोचा तक नहीं कि वे सभी गाड़ी के ही हिस्से हैं। हमारे लिए जब एक-एक पल किमती था, उपर के डेक पर पहुँचने के लिए उन बन्दों ने कमसे कम १० मिनट लगाए जाँच में। हाँ... चलो उसी बहाने मुझे भी अपनी गाड़ी और डिकी में पड़े कबाड की जानकारी तो हुई जिन में अन्य चीजों के अलावा एक कमीज, तौलिया, चाय का मग और एक सिम कार्ड भी शामिल था...
सारे वातावरण में मुझे शर्लोक होम्स जैसी गुप्ताता और जेम्स बोन्ड जैसी सुरक्षा पद्धति का अहसास हुआ... इन सब में वो सुबह वाली मौसमी महक जाने कहाँ दब गई, पता ही नहीं चला... पर कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है ना! मैंने उन सारी औपचारिकताओं को नज़र अन्दाज़ करते अपना मुड बनाए रक्खा। मेरी और गाड़ी कि सुरक्षा जाँच के बाद वहीं आगे गाड़ी पार्क करवा के हमें एक विजिटर्स कार्ड दिया गया और एक सिपाही कि निगरानी में लिफ़्ट तक पहुँचाया गया मैं तो अभी अपनी ही मानसिक कश्मकश में था कि लिफ़्ट पहुँच गया। मैं लिफ्ट को निहार ही रहा था कि शायद लिफ्ट मेन ने हल्के से कुछ कहा जो या तो मैं सुन नहीं पाया या समझ नहीं पाया। वहाँ आइने में मैं अपना हुलिया ठीक ही कर रहा था कि मुझे कुछ शब्दों से और कुछ इशारों से कहा गया कि मैं अब ७५वीं मंज़िल पर पहुँच चुका हूँ और अब एक दूसरी लिफ्ट मुझे और ऊपर ले जाएगी। ज्योंहि मैं कुछ आगे सोंचू एक फ़िलिपिनो बच्ची मुझे करीब-करीब हाथ पकड़ के एक दूसरी लिफ्ट तक ले गई। मेरा नाम और विजिटर्स कार्ड जाँचा और औपचारिक स्मित से इशारा करके एक लिफ्ट में पहुँचा दिया। फिर वही सफ़र फिर हुलिया ठीक करने की चेष्टा फिर लिफ्ट में उनकी कातिल निगाहें... अलबत्ता औपचारिक मुस्कान के साथ और लीजिए मैं पहुँच गया १५० वहीं मंज़िल पर। बाहर निकलते ही एक और गोरी सुंदरी सस्मीत स्वागत में कुछ कह रही थी जरूर, पर मेरे कानों में तो मानो किसी ने आरडिएक्स भर दिया हो ऐसा लगने लगा। चार्ली चैप्लिन का ज़माना याद आ गया जब बिना संवाद के फिल्में बनती थी ना...। आप सामने का नज़ारा देख सकते हैं पर कुछ भी सुन नहीं सकते। मेरी परिस्थिति का शायद उन्हें अन्दाज़ा लग गया होगा तो वो सुन्दरी ने मुझे कुछ टॉफियाँ दी, चबाने के लिए। मेरा चेहरा कितना एक्सप्रेसिव है, मेरी परिस्थिति बयान करने के लिए! मुझे गर्व हुआ और तब एहसास भी हुआ कि ये नौटंकी वाले बार-बार मुझे ही क्यों कास्ट करते हैं, एक्सप्रेसिव रोल्स के में... खैर... एक-दो टॉफियाँ चुसने-चबाने के बाद आहिस्ता मेरे कानों वाला आरडिएक्स बर्फ़ की तरह पिघल गया और कुछ मोम की तरह... (जो कल ही पत्नी ने दियासलाइ से निकाला) और अब हमने प्रस्थान किया अपनी आखिरी मंज़िल की ओर पहले एक छोटी-सी लिफ्ट में और उसके बाद एक सिढ़ी के सहारे।
सुबह: १०.४० बजे...
हम वहाँ थे जिसकी हमने सिर्फ़ कल्पना ही की थी या कि सपनों में ही सोचा था। बुर्ज खलिफा का ओब्जर्वेशन डेक एक ऐसी जगह जहाँ पर पहुँचकर आप अपने आप को सच्चे माइने में 'एट द टॉप ऑफ द वर्ल्ड' कह सकते हैं। यह हमारे लिए गर्व की बात कई कारणों से थी, पहल तो यह कि आज तक जिन्दगी में कभी सातवीं मंजिल से ऊपर नहीं गए, दूसरा यह कि हमारे खानदान के इतिहास में भी हम ही पहले बने जो कि इतनी ऊँचाई हासिल कर सके। अचानक तेनसिंग और हिलेरी-सी रोमांचक उत्तेजना हमारे बदन में फ़ैल गई। हमारे खानदान का कोई ध्वज नहीं है अगर होता तो हम जरूर ले आतो और पाँच ही मिनटों के लिए ही सही बड़े गर्व से फैलाते। अरे हाँ वैसे देखें तो थिएटरवालाज में भी तो हम ही सबसे पहले पहुँचे हैं। सबिहा जी से भी पहले। पर काश हम थिएटरवालाज का एक बैनर ले आते और यहाँ फैलाते, पता नहीं शायद प्रकाश जी ही ले आए। मैं इन बातों से उलझा ही था कि वो सिपाही जो साथ में आया था विनम्रता से जाने के इजाज़त माँगने लगा और चूँकि मैं एक चुस्त भारतीय हूँ इस औपचारिकता का मतलब समझ सकता हूँ और मैंने भी बगैर कोई फ़ूटेज खाए उसे हल्के से ५० दिरहाम थमा दिए। उसे लेकर वो राजी तो हुआ लेकिन सन्तुष्ट नहीं और एक फाल्तू बोनी की वजह से अपने दुर्भाग्य को कोसता हुआ वहाँ से खिसक गया। सोचता होगा एक कूर्ते पाजामे वाले चाचा से और क्या मिल सकता भी है। जाते-जाते वो कुछ गुनगुना रहा था या मुझे कोस रह था मेरी तत्कालीन एक्साइट्मेन्ट में मेरे लिए वो कुछ माइने नहीं रखता था। वो गया और अपने पीछे सीढ़ियों वाला दरवाजा उसने बन्द किया।
ओब्जर्वेशन डेक इक टेरेस नुमा बड़ा-सा गोल कमरा ही है जो दो हिस्सों में बँटा है, मध्य का हिस्सा एक गोल बन्द कमरा है, जिसकी सम्पूर्ण दिवारें काँच की बनी हैं और दूसरा हिस्सा बाहरूनी है जो कि एक खुले टेरेस की तरह और जो अन्दुरूनी कमरे के चारों ओर फैला हुआ है। अन्दरूनि हिस्सा सेन्ट्रली एयर कन्डीशन्ड है और वहाँ बैठने के लिए सोफ़े और कुर्सियाँ रखी गई हैं। फर्श पर सुन्दर पर्शीयन कालीन बिछाये गए हैं। एक छोटे केफ़ेटेरिया का प्रयोजन है और पुरुषों ओर स्त्रियोँ के लिए अलग-अलग प्रशाधन कक्ष है जबकि बाहर के हिस्से में बाहरी दीवार है जो करीब ८ फिट ऊँची है और जेड़े काँच की बनी है जिससे आप चारों ओर नज़ारा देख सकते हैं। हर २५-३० फूट की दूरी पर दूरबिन लगे हुए हैं और पीछे कि ओर दीवार को लगके फूल पौधों के गमले रखे गए हैं। फ़र्श पर इटालियन लगने वाले कीमती पत्थर बिछाये गए हैं।
मैं इन्हीं चीजों को देखने परखने में मशगूल था कि मुझे अहसास हुआ कि हवा बड़ी जोरों से चल रही है जो पल में आप को यहाँ से वहाँ हिलाने में समर्थ है। वातावरण में जो सन्नाटा, तेज हवा और उसकी तेज गति का प्रतिकसम कानों से होके बदन को काटती आवाज। अब शायद फ़िल्मों के साउन्ड इफ़ेक्ट्स में ही सुनी थी ऐसी आवाज और उसमें मिली थी वो ओसिली बूँदें... पता नहीं कि क्या इसे बारिश की बूँदें कहे या ओस की!! बरहाल उनके छिड़काव ने एक नई ताजगी का अहसास करवाया। चेहरा एकदम ही सार थकान भूल कर उन बून्दों से रिफ्रेश हो गया। एकदम ही मुझे वो क्षण याद आ गया, जब दाढ़ी बनाने के बाद नाइ चेहरे पर स्प्रे मारकर ताजगी का अहसास करवाता है। फर्क सिर्फ उतना ही था कि इस छिड़काव में वो टेल्कम पाउडर वाली बनावटी खुशबू नहीं थी। ये सोचता हि था कि अचानक ही कोहरे ने मुझे चारो ओर से घेर लिया। अब सोचता हूँ कि असल में वो बदल ही थे जिसकी कल्पना मात्र से आज भी रोमांच मिलता है। एक घनी सी चादर फैल गई, जिसके आर-पार कुछ भी दिखाई न दे, कुछ डर से और कुछ रोमांच से मैं जहाँ था वहीं स्तब्ध रह गया और उस शीत लहर का मजा लेता गया। दूसरे ही मिनट, एक सूर्य किरण प्रकट हुई, पूर्व दिशा से और मानों एक वरिष्ठ पुलिस वाले की भाँति, मुँह की सिटि बजाते-बजाते सार बादलों को तितर-बितर कर दिया और आहिस्ता आहिस्ता वातावरण फिर से सूर्य किरणों से प्रफुल्लित हो गया। बाहरी गैलरी में मैंने चारों ओर घूम के दूर-दूर दुबई के नज़ारे देखें। जहाँ तक नजर पहुँची वहाँ तक के इलाकों को पहचानने की कोशिश की। उत्तर में शारजाह, दक्षिण में जबेल अलि पश्चिम में पाल्म जुमरा और अन्य वास्तु जिससे कि दुबई जगत में नये सिरे से जाना जाता है। खुद बुर्ज खलिफ़ा का साया भी इस वक्त युनियन हाउस तक पहुँचता था जो अपने आप में एक दिलचस्प नजारा था और चूँकि पूर्वी ओर से सूरज की रोशनी आ रह थी उस ओर रेगिस्तान के अलावा और कुछ नहीं प्रतीत होता था।
सुबह: ११-४५ बजे
इन नज़ारों का आनन्द लेते लेते अचानक ही याद आया कि मैं चौपाल के लिए आया हूँ और बाकी के लोग कहाँ रह गए? फिर ये सोच के मन मनाया कि आनेवाले सभी नीचे सिक्योरीटि की औपचारिकताओं में उलझे होंगे और वैसे भी पिछले कई दिनों से कौन समयानुसार आता है। यह दुबई है... एक माँगों हज़ार बहाने मिलेंगे, देर से आने के लिए। यह सोचक मैं वापस अन्दरुनि हिस्से में टहलने गया वहाँ कि चिज़ो का अवलोकन करने लगा। नजर केफ़ेटेरिया पर पड़ी पर वह तो बन्द पड़ा था। काश... एक कप चाय मिल जाती। बाहर के माहौल में गरमा-गरम चाय के साथ इन नज़ारों ओर बदलों का आनन्द कुछ अलौकिक ही होता। इस आशा के साथ अपने आप को दिलासा दिया कि शायद दोपहर की नमाज़ के बाद यह केफ़ेटेरिया खूल जाय। हाँ... पर तब तक तो धूप भी तो तेज हो जाएगी। थोड़ा अपने आप को भी कोसा इसलिए कि हर बार पूर्णिमा जी की चाय की ही इतनी आदत पड़ गई है, कम से कम आज तो घर से ही सबके लिए चाय आदि का कुछ प्रबंध करके आना चाहिए था। जैसे अनुज के घर, रिहर्सल्स में ले जाया करता था पर दूसरे ही पल सोचा कि ऐसी तो कल्पना भी नहीं कर सकते न कि इतने बड़े वास्तु में मेहमानों के लिए चाय पानी कि व्यवस्था न हो। निचली मंज़िलों पर, यानि कि १५० वीं पर तो ज़रूर व्यवस्था होगी और जब सभी आ जाएँगें तो मँगवा लेंगे। ये सोचते-सोचते ही वहाँ सोफ़े पर बैठ गया और काँच के बाहर देखने लगा। यहाँ से भी बाहरी नजारा कुछ हद तक दिख रहा था पर बाहरूनी वातावरण की वो ताज़गी यहाँ कहाँ? बारिश की बून्दों की बौछारे यहाँ कहाँ? फिर उठकर वहीं पर मैं टहलने लगा कि कब कोई आए और कब मैं उन्हें आकर देकर अपनी सबसे पहले आनेवाली चेष्टा की तारीफ करूँ और सुनु भी। जाने अन्जाने में पहले आने में आज सबिहा जी को परभूत करने का आनन्द भी व्यक्त होगा जो कि पिछले दो सप्ताहों से डिंग लगा रही थी पहले आ कर। इस बीच सामने नज़र आने पर प्रसाधन कक्ष का भी दौरा कर आया जो कि वास्तु के प्रभावनुसार काफी सुन्दर सजीला और स्वच्छ था।
सुबह: ११-३५ बजे
''यार अब तक तो कोई ना कोई आ जाना चाहिए था... ये कोई भी क्यों नहीं पहुँचा अब तक? अब इतनी भी भीड़ नहीं थी वहाँ नीचे सिक्योरिटी में कि इतना वक्त लगे। अक्सर देरी से आनेवाले लोगों का फोन या एसएमएस भी तो आ जाता है। आज तो वह भी नहीं, क्या बात है?'' www.chevybeat.co.in उसुलन किसी को फोन न करना हमारा नियम है और उसे निभाना चाहिए। देखते हैं चौपाल वाला फोल्डर वहीं सोफे पे रखकर फिर मैं बाहर के हिस्से में पहुँचा। अन्दरूनि हिस्से से बाहरी गेलेरी में जाने के लिए छह दरवाज़े हैं। बाहर निकलते ही फिर वही थंडी हवाएँ बीच-बीच में हल्की-सी फुहार ठंडी बुन्दों की। अल्बत्ता धूप अब ज़रा तेज होती महसूस हुई पर फिर भी एक नए दुर्लभ और अद्भूत हि अनुभव का अहसास दिलाती थीं जो आज से पहले कभी नहीं मिला। उन फूलों को और पौधों को देखने लगा जो छोटे-छोटे गमलों में लगाए गए थे। सुबह कि धूप में काफी आकर्षित लग रह थे। काश मेरा नया कैमरा होता साथ तो कुछ अच्छी तस्वीरें ले लेता इन फूलों की। चलो देखते हैं नहीं तो बाद में मोबाइल से ही ले लेंगे। क्या कोई पंछि आते होंगे इतनी ऊँचाई पर? और आकर बैठे भी तो यहाँ क्या चारा-पानी मिलेगा उन्हें? और यहाँ कि हाउसकीपींग वाले घोसला भी तो नहीं रहने देंगे उनका।
साथियों की अनुपस्थिति अब मुझे खलने लगी। क्या हुओ कोई भी अब तक क्यों नहीं पहुँचा और न कोई मेसेज भी बात क्या है। मैं दुविधा में पड़ गया किसको फोन करूँ या न करूँ? आखिर ऐसे हालात में उसुलों को थोड़ा हल्का भी तो किया जा सकता है, यह मन को मना के प्रकाश भाई से फोन करने का सोचके जेब से फोन निकालकर उन्हें फोन लगा ही दिया। १०-१५ सेकंड नो रीप्लाय... फिर से लगाया फिर वही बात नो रिप्लाय... क्या बात है। जब गौर से फोन देखा तो एक गहरा धक्का ही लगा पता चला वहाँ मोबाइल का कवरेज ही नहीं है। ओह तो यह बात है शायद इसीलिए बाकी के आने वाले मेरा सम्पर्क नहीं कर पा रहे हैं। न फोन न मेसेज। एक ओर जहाँ इस बात का संतोष हुआ तो दूसरी ओर यह अन्देशा भी जगा कि कहीं आज का कार्यक्रम रद्द तो नहीं हुआ? इन्तजार में जो मजा है वो मिलने में कहाँ। जैसी छिछीर लाइनें दिमाग में दोहराई जाने लगी। इन्तजार का फल मीठा होता है। तू सब्र तो कर मेरे यार वेगेरा.... वगैरा... योंहीं हाथ में पकड़ा मोबाइल देखा और वे फूल याद आ गये। गया उन गमलों के पास और मोबाइल के केमेरे से कुछ तस्वीरें निकली फूलों की, कलियों की उन्हें फिर प्रिव्यू में देखा कुछ को डिलिट भी किया। उसी तरह बुर्ज से दिखने वाले चारों ओर के और सीधे नीचे कि ओर दिखनेवाले नजारों को भई केमेरे में कैद किया।
सुबह: ११-५० बजे
फिर अन्दरूनि कमरे में आकर एक सोफे पे लम्बे पैर करके बैठ गया। बोरियत से परेशान होने लगा। अमा यार, अब तो हद्द हो गई कोई भी क्यों नहीं पहुँचा अब तक? जैसे कि प्रकाश जी ने बताया था कि आज की चौपाल का कार्यक्रम सभी की सहमति से ही बनाया गया है और वैसे भी ऐसा सुनहरा मौका कौन गवाना चाहेगा कि आज यहाँ चौपाल हो और लोग आम दिनों की तरह बहानेबाजी करे नहीं आने के लिए। प्रकाश जी के नए घर से तो यह जगह काफी नजदीक है और वही हाल सबिहा का भी है... अब तक तो आ जाने चाहिए थे। पूर्णिमा जी को आज क्या हो गया? और बाकि के साधू जो कि अपना उल्लू सीधा करने के लिए ही चौपाल में इद के चांद की तरह दिखाई देते हैं? वे सब कहाँ गुम हो गये? बुर्ज खलिफ़ा के चौपाल से भी बड़ी कोई और तक इस वक्त उन्हें कहाँ मिल गई कि वे भी अब तक नहीं पहुँचे। सब के सब शोर्टसाइटेड हैं दूर कि कभी सोचते ही नहीं।
सब के सब अब बच्चे तो रहे नहीं कि उन्हें वक्त की पाबंदी के बारे में सिखाने की आवश्यकता हो, लेकिन बात यहाँ पाबंदी की नहीं एटिट्युड की है। वाह यहाँ अपने मतलब कि है. स्वयं कि स्वार्थ की जिससे ऊपर उठके कौन सोचता है और क्यों सोचे जब स चलता है इसी तरह।
अगर इनमें से किसी एक की कहानी या स्क्रिप्ट आज पढ़ी जानी होती, याकि अगर आज फ़लाँ फ़लाँ मेगेजिन में एकाद पाँच पंक्तियों का ही सही आलेख छपजाता तो जरूर वो भाग के सबसे पहले पहुँचता और अपनी नुमाइश करते।
इनमें कोई तो ऐसे भी है जिन्हें अलग से बुलावा चाहिए, चौपाल में आने के लिए मानों चि. मनन सोनि की शादी होती हो और बारात उनके बगैर निकले ही कैसे?
और ना ही ये कमबख्त फोन काम कर रहा है। ओफ ऐसी टेकनोलोजी भी किस काम कि जो ठीक जरूरत के समय ही मुकर जाय? ना आप बात कर सकते हैं न ही एसएमएस! क्या फायदा इसे पालकर रखने का? इन्टरनेशनल रोमिंग लाख करवाइए पर यहाँ दुबई में ही अगर नहीं चलता तो क्या काम का?
दोपहर: १२.२० बजे
छत पे लगे आइनों और जुम्म्रों को अनायास ही निहारते अब काफी वक्त भी निकल गया है दो तीन तस्वीर खींचने के बाद उनमें दिलचस्पी भी कम हो गई। धीरे-धीरे अकेलेपन का अहसास जितना तेज होता गया उतना ही गुस्सा अबतक नहीं आने वाले साथियों पर भी आने लगा। एक विचार आया कि क्यों न नीचे चलकर एक चक्कर लगाया जाय पर दूसरे पल ही यह सोचा कि देखते हैं थोड़ी देर और नहीं तो घर ही चलते हैं। अब क्या खाक होगी चौपाल? उसी में से याद आ गया पीछली चौपाल, जब १२-३० के बाद शुरू हुआ था संक्रमण का प्रयोग। शायद इस ख्याल ने एक टोनिक का काम किया और थोड़ा ही सही हौसला दिलाया। आमीर खान याद आ गया और उसके जैसे ही दिल पर हाथ रखके जोर-जोर से आ इज वेल गाने लगा। अफसोस वह मेरे साथ गानेवाला या उस गाने की तारीफ करने वाला कोई भी नहीं था सिवा मेरे अपने ही साये जो कि छत और दीवारों पे लगे आइनो से मेरी ही मनस्थिति प्रतिबिम्बित कर रहे थे।
साथ लाए फोल्डर पर एक नजर फैलाई और इसके अन्दर कुछ पन्नों को यों ही निहारा और फिर बन्द कर दिया। हर दो तीन मिनिटों में घड़ी की ओर देखना एक मजबूरी हो ही गई और बिना कारण अपनी घड़ी और सामने लगे केफेटेरिया की घड़ी का समय मिलाने लगा। जो कि लगभग एक सरीखा ही था।
फिर बाहर वाली गेलेरी में आ पहुँचा। हवा की तेजी में कुछ कमजोरी महसूस की और तापमान गरमी को और बढ़ता-सा पाया। वो हल्की बूँदो की छिड़काई न जाने कही लुप्त हो गई थी और अभी-अभी एकाध घंटे पहले जो महसूस की थी वो ताजगी भी मेरे मन के चैन और शान्ति की तरह मानो बिखरती जा रही थी। दुनिया के सबसे बड़े वास्तु को बस में करने की सिद्धि जो सुबह-सुबह दिमाग पे छायी थी अब मानों पिघलकर पसीने की बूँदो के रूप में चेहरे और बदन पे जम रही थी। वो आनन्द, जिग्यासा, रोमांच जो सुबह-सुबह यहाँ आते ही पाया था। मानों अहिस्ता-अहिस्ता अपनी अहमियत खोता जा रहा था। इसीलिए शायद हमारे शास्त्रों पुरानों और गुरुजनों ने कहा कि भौतिक वाद का सुख क्षणभंगुर होता है और वाकई कितने ही ऐसे आनन्द है जिसका मजा आप अकेलेपन में नहीं उठा सकते। उस आनंद को झेलने के लिए और बढ़ाने के लिए उन्हें बाँटनेवाला कोई साथी, यार, दोस्त का होना भी जरूरी होता है। शायद इसीलिए हमें सोशल एनीमल कहा गया है।
दोपहर: १२-४० बजे.
कुछ भी हो गड़बड़ जरूर है कहीं इन लोगों ने मुझे एप्रील फूल की तरह बेवकूफ तो नहीं बनाया? नहीं अगर ऐसा होता तो फिर नीचे उस सिक्योरिटि वाले के पास मेरा नाम केसे होता? और वो मुझे क्यों छोड़ता ऊपर आने के लिए?
और कुछ पैसों के लिए यहाँ के सिक्योरिटी वाले तो पटेंगे नहीं।
और वैसे भी इस तरह झूठ बोलकर प्रकाश जी को क्या मिलेगा?
अब तो दूर-दूर से अजान की आवाजें भी आने लगी है। दोपहर की नमाज का भी समय हो गया। अब तो यहाँ रहना बेकार है। चलो निकल लेते हैं। ऐसे ही सोचते-सोचते आखिरी बार गेलेरी का पूरा चक्कर लगाया। उन नजारों को फिर से देखा जो अब सूरज की तेज रोशनी में फिकें लग रहे थें। बुर्ज खलिफा का साया भी मेरी तरह ही मानो अपेक्षाओं की परिकाष्ठा छूकर अब हार कर वापस अपने घर लोटने की चेस्टा करते हुए सिमट कर एक छोटे से दायरे में आकर सिमित हो गया था। उन सबको एक गहरी साँस लेते आखरी सलाम दे कर मैं भीतरी कमरे में आया। फिर से प्रसाधन कक्ष हो आया और पहुँचा उस दरवाजे पर जहाँ से मुझे कुछ सीढ़िया उतरकर नीचे जाना था।
मैंने दरवाजे का हेन्डल पकड़ा और घुमाया और साथ ही दरवाजे को अपनी ओर खींचा। न तो हेन्डल घूमा और न ही दरवाजा खुला। मैंने फिर से कोशिस की फिर वही परिणाम। शायद दरवाजा उस ओर खूलता होगा यह सोचकर इसबार मैंने हेन्डल घूमाके दरवाजे को समाने की ओर धकेला, पर नहीं दरवाजा नहीं खुला। यह क्या मेरी मानसिक थकान का परिणाम है? मैंने घड़ी दो घड़ी गहरी सांस ली अपने चारों ओर देखा और शान्त मन से फिर से अपने दोनों हाथों से हेन्डल पकड़ा, घुमाया और एक झटके से पूरे जोर से दरवाजा अपनी ओर खींचा। एक... दो... और ये तीन...
एक खट्-सी आवाज़ आई, मैं अपनी जगह से करीब तीन-चार फूट पीछे पहुँचा और गिरते-गिरते बचा। पर यह क्या दरवाजा तो खुला नहीं और पूरा का पूरा हेन्डल मेरे हाथों में आ गया।
झट से ऊठकर मैंने उस हेन्डल को फिर अपनी जगह पर लगाने की कोशिश की जो कि बेकार ही होनी थी। कुछ पल हेन्डल को देखा तो कुछ पल दरवाजे के उस हिस्से को जहाँ वो हेन्डल लगा हुआ था। कुछ नया नहीं सुझने पर बगैर हेन्डल के ही दरवाजा खोलने की कोशिश की। बाजु से ऊपर से नीचे से परन्तु सब व्यर्थ।
क्या करूँ... क्या कर सकता हूँ... उठ के सारे कमरे का फिर एक चक्कर काटा। शायद कोई और दरवाजा या कोई और उपाय हो। जहाँ बाहर निकला जाय पर नहीं, कहीं कोई भी आस नजर नहीं आई। ये तो दुष्काल में तेरहवा मास वाली परिस्थिति हो गई। खुद पर काफी गुस्सा आया कि क्यों अकेले ही चला आया यहाँ पर दूसरे ही पल गुस्सा दया और करुणा का रूप लेने लगा।
क्या ये उस बन्दे का काम तो नहीं, जो मुझे छोड़ने आया था। कैसे मुँह बना रहा था जब मैंने पैसे दिए। उसे अगर कम लगे थे तो कहता मुझे। यों बिना बताये ही खुन्नस निकालने का क्या मतलब? कमप्लेन करूँगा मैं उसकी।
कोई चारा भी तो नजर नहीं आता यहाँ से मुक्ति का। अब तो बस एक ही उम्मीद थी कि अगर अपना ही कोई थियेटर वाला आ जाए तो बात बन जाएगी, वरना २ या ३ बजे के बाद जबकि यहाँ के सफाई वाले और ये केफेटेरिया वाले ड्यूटि पर आए तब काम बन सकता है और कोई सम्भावना बनती नजर नहीं आती थी। आज से १० साल कम उम्र का होता तो शायद एकाध शीसा तोड़ देता नहीं तो कम से कम अपना मोबाइल तो जरूर जमीन पर पटकता। उस एंग्री यंग मेन की तरह जोकि आज कल निःशब्द बनता जा रहा है,, जैसे मैं हूँ इस वक्त।
इस यातना से अबतो छुटकारा कमसे कम दो घंटे तक नहीं होने वाली, यह सत्य मानेत, जुते निकाल के अपने फोल्डर को सिरहाने रखके एक बड़े सोफे पे जोकि दरवाजे के ठीक सामने था मैं लुढ़क गया। तरह-तरह के विचार मानस पटल पर घूमने लगे और उन विचारों की डोक्युमेन्टरी चलने दी। कहीँ उसमें से कोई उपया मिल जाय इस समस्या को हल करने के लिए। उन्हीं विचारों की चद्दर ने पता ही नहीं चलने दिया कब नींद की आगोश में कैद हो गया। हो सकता है यह मेरी सहज प्रकृति के कारण या फिर वे जयपुर वाले आलू के पराठों की वजह से खर्राटे भरके सोते मुझे देर नहीं लगी।
दोपहर:२-३० बजे
भला हो वहाँ की एसी-मय वातावरण का और हमारे भरे पेटका, दो घंटे कहाँ निकल गए पता ही नहीं चला। सुबह से अजीब-सी ड्यूटी पर लगे दिमाग को शायद कुदरत भी थोड़ा आराम देना चाहती हो। उम्मीद फिर जग उठी। अन्दाज से तीन बजे तक तो स्टाफ भी आ जाएगा और दूसरे पर्यटक भी जो यहाँ पहुँचेंगे। बस और कुछ ही देर। यही सोचते लेटा रहा और करवटे बदलता रहा वहीं छत और दिवारों को निहारते हुए जो कि बदलते समय के साथ अब फिंकीसी और मामुली नजर आ रहीं थी।
कमाल है उन सिक्योरिटि वालों का भी। जब सुबह १०-३० बजे मुझे ये विजिटर्स कार्ड दिया है और अगर अब तक मैं लौटा नहीं तो कमसे कम जाँच करने तो आना चाहिए कि नहीं?
अब तक तो उनकी ड्यूटि खत्म भी हो गई होगी और नये आने वालों को भी तो इस बात की जानकारी दी गयी होगी। निकम्मे साले सबके सब क्या सेक्योरिटि? कौन सी सिक्योरीटि?
दोपहर: ३-३० बजे
ये अभी तक कोई आया क्यों नहीं? अगर चार बजे से भी पर्यटक आने वाले हो तो भी यहाँ के कर्मियों को तो अब तक तहेनात में आ ही जाने चाहिये ना? कोई पता नहीं इनका भी!! इसी विचार के साथ अलग-अलग तरह से खिलवाड़ करता रहा, सिर्फ एक दूसरे विचार को दूर रखने के लिये और वो था कि कहीं शुक्रवार को सार्वजनिक छुट्टी की वजह से यहाँ तक आने की सुविधा बन्द न हो! हे भगवान! अगर ऐसा है तो वाट लग गई।
खैर देखते हैं और कुछ सुझने पर। फिर दो-तीन चक्कर लगाए फिर आके केफेटेरिया की एक कुर्सी पर बैठा फिर ऊठी, टहलता रहा।
शाम: ४-३० बजे
दिल की धड़कने अब मिनटों-मिनटों में तेज हो रही थीं। करीब-करीब यह तो तय ही हो गया कि अब पर्यटकों के आने की कोई भी सम्भावना नहीं है और यह भी तय है कि अब छूटने की बड़ी तबाही आ सकती है जब कोई सिक्योरिटि वाला या कि कोई स्टाफ वाला यहाँ पहुँचे वरना तो राम जी ही मालिक है। कुछ उपाय ढूँढ़ने की गरज से फिर बाहर की गैलेरी में पहुँचा। एक-दो चक्कर लगाए क्या किया जाय जिससे कि किसी का भी ध्यान आकर्षित कर सकूँ? कैसे कुछ संकेत भेजूँ नीचे एक अजब मजबूरी का अहसास होने लगा, कि इतने बड़े शहर के मध्य होते हुए भी अकेलापन। जो कि एक कारावास से कम नहीं है और हालात यों ही रहे तो ये कारावास एक पागलखाना भी साबित हो। एक विचार आया क्यों न कोई चीजी फेकी जाए? क्या फेंके? ये गमला? नहीं नहीं किसी के सर में लगा तो बेचारे के बारह बज जाए। अन्दरूनी चीजों का भी मन ही मन जायजा लिया कुछ है फेंकने जैसा? कुर्सियाँ... सोफे... टेबल... काँच की फूलदानी नहीं कुछ नहीं कागज के फूल... हाँ हाँ क्यों नहीं कोशिश की जा सकती है। फौरन गया अन्दर, निकाल कुछ कागज के फूल और बाहर आकर कुछ असली फूल भी जोड़ा उनमें और ऊछाले उन सबको उस ८ फूट ऊँची काँच की दिवार परे पर ये क्या? कागज के फुल तो उड़ गए हवा के झोकों के साथ, पहले उपर की ओर फिर न जाने कौन-सी दिशा में दूर दूर... और ये ही हास असली फूलों का भी हुआ। पवन के झोकों के साथ बह गए मीलों दूर। जाहिर है जहाँ भी वे गिरेंगे जो मैंने चाहा था वो संदेश तो देंगे नहीं। क्या गमला फेंकी जो भी होना हो हो जाय। एक बार नीचे गिरेगा तो किसीना किसी का ध्यान में तो आएगा ही और जाँच भी होगी। उसी बहाने कम से कम अब उन्हें याद आए कि कोई ऊपर गया है और अब तक लौटा नहीं पर अगर वे किसी व्यक्ति के सर पे गिरा तो? नहीं नहीं ये उपया नहीं तो और क्या करें? एक बार एस.एम.एस. में आया था। ये मोबाइल में कुछ तो नम्बर है जो लगान से खतरे का इशारा भेजा जो सकता है काश वो नम्बर सेव किया होता। अब पता नहीं कि बिना कवरेज के इलाकों में वो काम करता ही नहीं। खैर छोड़े...
शाम: ५-३० बजे
धूप अब काफी कम हो गई है। हवा भी धीरे-धीरे नम और ठंडी हो रही है। रफ्तार भी बढ़ रही है। बुर्ज खलिफा का साया अब सुबह से विपरित दिशा में फैल चुका है। न जाने उस रेगिस्तानी इलाके को क्या कहते हैं। क्या फर्क पड़ता है देखते ही देखते ७ घंटे बीत गए। इस जगह लेकिन अब भी कोई उपाय नजर नहीं आ रहा यहाँ से बाहर निकलने का।
तेज बहती हवा ने एक नया ही विचार सुझाया, क्यों न यहाँ से कुछ लहराया जाय? अगर उसे कोई देखले तो काम बन जाएगा। क्या लहराए? उउउउ... कालिन, पर्दे... नहीं नहीं यस फौरन अपना कुर्ता निकाला और अन्दर से एक कुर्सी ले आया। सामने वाली काँच की दिवार से कुर्सी को रखा और कुर्ते का एक हिस्सा काँच और कुर्सी के बीच में फँसा दिया और कुर्सी पर चढ़कर दूसरा सिरा उस दिवार के बाहर खुली हवा में फैलाता हुआ छोड़ दिया। जितना चाहा था उतना बड़ा तो नहीं पर कुछ तो लहरा रहा था हवा में। बाहरी दिवार से भी परे शायद कोई देख पाए उसे और उसे सुझे की वह जा कर नीचे सिक्योरिटि वाले से कहे... उसी विचार में इसी तरह दूसरी ओर फैलाने के लिए अपनी बनियान भी निकली और ठीक उसी तरह कुर्ते से सामने वाली बाजु में उसे एक और कुर्सी के सहारे लहराया। हे भगवान... कोई तो देखे इन्हें... परन्तु दूसरे ही क्षण इस उम्मीद पर भी पानी फैल गया। इतनी ऊँची इमारत पर इतने नीचे से यह कुर्ता और बनियार कितने छोटे देखेंगे? कौन गौर करेगा उस पर? और दिख भी गया तो जरूरी नहीं कि देखनेवाले सही मतलब निकले इसका! हताश हो कर वहीं बैठ गया... जिस कुर्सी के सहारे बनियान लहरा रहा था उसी कुर्सी पर बैठ गया और कुछ और प्रयास के बारे में सोंचने लगा।
शाम: ६-३० बजे
ज्यों ज्यों बिदा लेते सूरज की किरणें रंगीन परन्तु कमजोर होती जा रही थी मेरी उम्मीदें और यहाँ से जल्द निकलने की सम्भावना मिनिट बे मिनिट कम ही होती जाती थई। उठ कर के अनयास ही चक्र लगाता रहा और उस हिस्से में पहुँचा जहाँ से कुर्ता लहराया था। ओह गोड यह क्या? तेज हवाएँ उस कुर्ते को अपने साथ ९-२-११ कर चुकी थीं। ये क्या हुआ? दूसरे ही पल भागकर बनियान वाले हिस्से में पहुँचा तो जाहिर है वो भी अलविदा कर चुका था। हे राम ये क्या एक छोटी-सी उम्मीद भी हवा के झोकों ने उड़ा दी। निराश हो कर वहीं बैठ पड़ा। सर घूटनों और दोनों हाथों के बीच दबाए, रोने की हरकत नाकामयाब न कर सका अब क्या, अब क्या?...
एक ही उम्मीद रातपाली वाले कर्मी और सिक्योरिटी वाले करीब ८ बजे ड्यूटि पर आते होंगे। बस अब तो वो ही आखिरी आस बच गए थी।
बाहर अब आहिस्ता-आहिस्ता अन्धेरा छा रहा था। वातावरण काफी ठंडा हो रहा था। हवाने भी काफी तेज पकड़ा था। दूर सुदूर ही डूबते सूरजे की किरणें शायद शर्मिन्दगी से गुड बाय कर रही थी मानो मुझे आश्वासन दे रही हो कि बस हम सब जाते ही सुबह को भेज देंगी और सुबह होते ही तुम आजाद हो जाओगे... दूर फैले दुबई के छोटे बड़ी मकान अपनी रोशनी टिन्टेड काँच की खिड़कियों से देखते नजर आते थे। मानो जुगनू एक दूसरे को हेलो-हाई कहते हों। मैं फिर भीतर के कमरे में पहुँचा। दिन भर जिन प्रकाशित जुम्मरों और दियों को मैंने नजर अन्दाज किया था उनकी अहमियत अब साबित होने लगी थी। पानी पीने की इच्छा हुआ पर बन्द केफेटेरिया में उसकी कोई गुंजाइश नजर नहीं आई न ही वहाँ वेन्डिग मशीन था जिसमें से पानी की बोतल मिलती। प्रसाधन कक्ष का विचार आया पर प्यास उतनी भी तीव्र नहीं थी कि वहाँ के नल का पानी पिया जाता।
शाम: ७-३० बजे
बस्स अब आधा घन्टा और फिर तो रात पाली वालों को आना ही है। मैंने फोल्डर में से कुछ पन्ने निकाल जोशी जी की कहानी, परसाइ जी का लेख, खूसरों कि रुबाइयाँ, संक्रमण की कहानी सब ही आँखों के सामने से निकाला, कुछ पढ़ने का प्रयास किया। पर निर्थक साबित हुआ। भूखे भजन न होए गोपाल। उसी बात पर थोड़ी सी ही सही भूख की भी याद आइ। काश इस फोल्डर में कुछ खाने का भी होता, हँस पड़ा अपनी ही नादानी पर। कुछ गनगुनाने की कोशिश की पर सूर ना सजे क्या गाऊँ मैं? जैसे हालात थे... क्या से क्या हो गया? तेरे प्यार में.., ये कहाँ आ गए हम? अए दिल कहा तेरी मंज़िल.., निर्बल से लड़ाई बलवान की... ये कहानी है दिये कि और तूफान की.. आदि कई गानों की पंक्तिया गुनगुनाता रहा।
रात: ८-३० बजे
रात जितनी भी सन्गिन होगी सुबह उतनी ही रंगीन होगी... अब तो हालात ये ही गाने के हो गए... अब तक की आखरी उम्मीद भी तड़पती मछली कि आखिरी साँसों की तरह देखते ही देखते नजर के सामने ही शहीद हो गई। अब तो यह मान ही लिया कि सुबह होने तक कोई सम्भावना नहीं है यहाँ से बाहर निकलने की। परन्तु जब अब तक नहीं लौटा तो पत्नी ने जाँच क्यों नहीं की? माना कि मेरा मोबाइल नहीं मिलता होगा पर प्रकाश जी को तो हो सकता है उनका नंबर न हो उसके पास। हम्म्म्... तो फिर पूर्णिमा जी उनका घर तो देखा है उसने, जाना चाहिए न वहा हो सकता है कि अब जाए अब मैंने भी कौन-सा सभी थियेटरवालों के नम्बर अपने घर की फोन-बुक में लिख रखे हैं? इन छोटी-छोटी बातों की अहमियत ऐसे वक्त समझ में आती है। हम्म काश मस्सकलि जैसा कोई कबूतर होता और कबूतर जा जा जाअ.. कह के सन्देशा भेज पाता। ये प्रकाश जी और अन्य थियेटर वालों को भी मानना पड़ेगा किसी को पड़ी नहीं है आने की और अगर केन्सेल भी हुआ हो तो कमसे कम वक्त पे बता तो देते हफ्फ्फ़। नादां से दोस्ती जी का जंजाल। अब क्या काटो रात भी यहीं पर।
रात: १० बजे
ये अपने आप अकेले रहना सचमुच राजीव खंडेलवाल वाले सच का सामना कि हॉट सिट से भी कठिन है। दुनिया भर के सब ग्यान की बातें फलस्फां, चरित्र, गुण, प्रभुता, विद्वता सब की सब धरी की धरी रह जाती है। सब बाह्य आडंबर और दिखाना साबित होती है। इसिलिये शायद कारावास का प्रयोजन है हमारे कानून में। आम जिन्दगी से परे जब आदमी अकेले में रहता है तब ही उसे अपने बारे में सोचने का मौका मिलता है शायद। याद आते होंगे अच्छे और बुरे कर्मों में जिन्दगी के सुख और दुःख दिन जमा और उधार का हिसाब। जैसे कि अब मेरे साथ हो रहा है।
एक फिल्मी की तरह आते हैं वे सारे नज़ारे, वे सारे क्षण जिनमें उदासी आनंद घमंड स्वार्थ अपराध प्रपंच क्षमता हार समझौता आवारागर्दी नेतागिरी सहाय दिखावा औपचारिकता और ऐसे ही कई और भावों का आदान-प्रदान किया अब तक की जिन्दगी में। क्या पाया क्या खोया क्या हो गया है क्या बाकी है कौन अपना है कौन पराया किससे मिलें किससे भागे क्या दोस्ती क्या दुश्मनी क्या जीवन क्या मृत्यु। क्या ईश्वर क्या नश्वर क्या ये जग क्या वह जग कहाँ हूँ मैं कौन हूँ मैं?
रात: १२-३० बजे
सहसा ही उठ खड़ा हो गया। गजब की ठंड लग रही थी। बाहर की तेज हवाओं की बेधक आवाज यहाँ भी सुनाइ देती थी। दरवाजों की सुराग में से कुदरत मानों बाहरी और अन्दरूनि तापमान में समतुलना लाने में कामयाब हो गई थी। बगैर कुर्ते और बनियान के इस मौसम का सामना करना मानो एक चुनौती ही थी। कितने आदि हो जाते हैं हम हर तरह के आवरणों के चाहे वो शारीरिक हो या मानसिक पहले मौके पर ही चित हो कर हार मान लेते हैं। अपने बदन के सुकड़कर वहीं लेटा रहा, दोनों पाव घुटनों से मोड़े छाती की ओर लिए और सिर घूटनों तक ऐसे ही लेटे-लेटे ढूँढता रहा। कहीं कुछ है जो कि लिया जा सकता है। बदन के उपर पर नहीं सोफे की गद्दियाँ लेदर से बनी थीं और चुस्त सिलाई से जड़ दी गई थी। बदन काँप रहा था और मारे सर्दी के निन्द ने भी चूहे बिल्ली का खेल चालू रखा था और तीसरी ओर पेट रह-रह के याद दिला रहा था कि उसे भी न्याय मिले करीब १२ घंटे से ज्यादा बीत गया है...
रात: २-३० बजे
बड़ी कशमकश के बाद केफेटेरिया के हिस्से से एक छोटा कालिन उठाने में कामयाब रहा। उसे घसीटकर अपने सोफे तक ले आया और उस कालीन को ही ओढ़े लेटा रहा। भगवान का नाम लेने से तकलीफ कम होती है। बहुत बार सुना और कहा भी है उसी हिसाब से हनुमान जी से लेकर महादेव, कृष्ण, राम, माता जी और माँ-बाप से लेकर सारे पितरों को याद और स्तुति करने लगा। प्रेमचंद जी की पूस की रात भी याद आने लगी और मन ही मन चौपाल की याद भी आई जहाँ यह कहानी पढ़ी गई थी। है न एक और संक्रमण लाख चाहो कि ना चाहो बात घुम फिर के चौपाल पर ही आ गई।
सुबह: ४-३० बजे
सहसा जाग उठा। शायद कुछ आहट हुई पर पाया कि कालीन जो बदन पर लिया था अपने ही वजन से नीचे गिर गया था और मरे ठंड के जाग उठा था। ज्यों त्यों हिम्मत जुटा के प्रसाधन कक्ष गया। बड़ी तीव्र इच्छा हुई वहाँ के नल के पानी पीने की, मगर बुद्धी ने साथ नहीं दिया। सिर्फ वहाँ के गरम पानी से अपना चेहरा जरूर धोया और उस गरमाहट के साथ इक गिलेपन का भी अहसास लिया। कैसा है यह अनुभव? और मुझे ही क्यों? क्या पाप या गुनाह किया है मैंने इसे भुगतने के लिए? क्या इसमें भी कोई संकेत है आने वाले किसी शुभ का? याकि यह संकेत है कोई दुष्कार्य का जिसका सजा आज मिली है। पता नहीं सजा देनी ही थी तो कम से कम चर्चा तो होती। अपने बचाव का मौका भी तो मिलना चाहिए था कि नहीं? अगर यह कानून है तो ये अन्धा कानून है। खैर, ऊपर वाले के घर देर है अंधेर नहीं है। इन्तजार करो वो देर कब खत्म हो और कब छुटकारा मिले इस यातना घर से...
शनिवार: सुबह ६-३० बजे
दरवाजे पर कुछ आहट-सी हुई। मैं सहसा जागकर उठ गया। अन्धेरे की भीड़ में से उजाले की कुछ किरणें आगे आने की कोशिश में थी, मदारी का खेल देखने को तरसते उन बच्चों के जैसे, जो कि आगे की ओर खड़े बड़े बुढ़ों के भीड़ के बीच में से नीचे झुककर अपना-अपना रास्ता बनाते आगे बढ़ते हैं। अभी सम्भल भी नहीं पाया था कि वो मुआ दरवाजा जिसने मुझे एक दिन की जेल की सजा ठोक दी थी, राम ब्रदर्स की फिल्मों के टाइटल ट्रेक की तरह एक खौफनाक आवाज करते-करते खुलता नजर आया।
हे भगवान आखिर छुटकारा... आखिर छुटकारा... मुक्ति फ्रीड...
छुटा इस कैद से... छूटा... छूटा... आखिर... इस जेल से...
देख लूँगा सबको... छोडूँगा नहीं...
क्या हुआ क्यों चिल्ला रहे हो? सुबह-सुबह और ये शक्ल तो देखो अपनी अध खुली आँखों से देखता हूँ तो सामने पत्नी खड़ी है बेड टी का कप ले के...
अरे यार, ये चाय बाद में... पहले मुझे पानी पिलाओ... ये कहते पास ही पड़े जग में से मैं दो गिलास पानी गट गटा गया... जब तक पत्नी अपने पल्लु से मेरे चेहरे पे जमी पसीने की बून्दे साफ करती...
सूंदर रचना है। पूरी रचना में हर वक्त यह उत्सुकता बनी रहती है कि यहाँ से आगे क्या होगा। शैलेष बाबू का बहुत धन्यवाद ऐसी अच्छी रचना लिखने एवं प्रकाशित करने के लिए।
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